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साधन से सिद्धियों की प्राप्ति
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भगवान को प्रेमपूर्वक प्रसाद चढ़ाने के पश्चात् ही हम भोजन करते है। इस प्रकार इन दोनों परिस्थितियों में जमीन आसमान का अन्तर है। एक अवस्था में जहाँ कि इन्द्रियाँ डन्डे के बल से रोकी जा रही है जबकि दूसरी अवस्था में अपने मन के संयम के द्वारा इन्द्रियाँ वश में रहती हैं । योग की प्रथम सीढ़ी ही यह है कि चित्त की वृत्तियों का विरोध नहीं बल्कि निरोध हो । विरोध में टकराव है, जैसे एक नदी बह रही हो उसको बाँध बनाकर या अवरोध खड़ा करके जबरदस्ती रोक रखा हो, यहां नदी अपने से ही नहीं रुकी हुई है, जैसे ही बाँध कमजोर होगा पानी का वेग वड़ी तीव्रता से टूट जावेगा। जबकि निरोध तो वह स्थिति है जिसमें कोई बांध नहीं बना रखा होता है, वहाँ तो नदी का प्रभाव अपने आप से ही रूका होता है, चाहे तो नदी अपना प्रभाव चालू कर भी सकती है ।
ठीक यही स्थिति मेरी उस समय थी, चाहता तो बिना किसी परेशानी के 'मैं छाछ पी सकता था। किसी भी प्रकार से मेरे मान सम्मान में प्रत्यक्ष रूप से कोई फर्क नहीं पड़ने वाला था और तो और बबुआ तक को मेरे संकल्प का पता नहीं था फिर मेरे बाँध के टूटने का उसे पता कैसे चलता। लेकिन मेरे अन्दर जो "मैं" मोजूद था, वह तो सब कुछ देख रहा था जिसके सामने मैंने संकल्प किया था। परिस्थिति अब मेरे समक्ष पूर्ण रूप से ठीक परीक्षा देने की आ गई थी। छाछ सामने रखी थी, पानी भी सामने रखा था, सारा का सारा सामान मौजूद था मेरे धैर्य की परीक्षा का अथवा मेरी इन्द्रियों को प्रलोभन में फंसाने का। मैं वहाँ इस स्थिति को भी अपने अनुभव में उतार सकने की स्थिति में था। जब यह स्थिति सामने आयी, तभी पता चला कि इन्द्रियां अपने प्रभाव को हटते देखकर कितनी परीक्षायें लेती है।
राम-नाम लेने की आवश्यकता अब मुझे नहीं हो रही थी, बल्कि इन विचारों को हटने के बाद जैसे ही मेरा ध्यान राम-नाम जपने को होता तो में उसको पहले से ही अपने अन्दर चलते हुए पाता था। छोटे-छोटे व्यवधान बीच में आते थे और ध्यान फिर वहीं चला जाता था। अब मुझे ध्यान ही नहीं करना 'पड़ रहा था बल्कि अन्दर एक प्रकार से राम-नाम की अहिनिश लौ जल रही थी, बहुत गहरे में इसी लो ने ही मुझे उस कठिनाई के समय में संतुष्ट कर रखा था। समस्त परेशानियां उस संतुष्टि के रहते हुए बहुत ऊपर ऊपर मालुम पड़ रही
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