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योग और साधना
लक्ष्मी जी ने फिर कहा "किसका" प्रत्युत्तर" में ग्वाले ने कहा "तेरे खसम का" फिर वे पूछने लगी “वो कहाँ हैं'। इस पर तडाक से ग्वाले ने जबाव दिया कि ' होगो कहीं कूआ पोखर में, मैं का बाकै पीछे-पीछे डोलू हूँ।" लक्ष्मी जी उसी समय भगवान के पास लौट आयी और भगवान से कहने लगी "भगवन इसकी तो वाणी सिद्ध हो गयी है मैंने इससे दो प्रश्न किये इसने दोनों का ही यथार्य उत्तर दिया है, जब मैंने पूछा कि वह किसका भजन कर रहा है तो इसने कहा कि वह मेरे पति का भजन कर रहा है और जब मैंने यह पूछा कि वे कहां हैं तब उसने कहा कि होगा कहीं कूआ पोखर में, और मैं भगवान को देख रही हूँ कि आप बैठे तो कूआ पर ही हैं लेकिन आपके पांव इस कूऐ के पानी से बनी इस पोखर में ही लटक रहे हैं।
मेरा कहने का तात्पर्य इस विषय में केवल इतना सा ही है कि यदि हम अपनी श्रद्धा, लग्न और अपने होश को उस अज्ञात के लिये लगा दें तो घटना घट कर ही रहेगी, यह सिद्धांततः बिलकुल सत्य ही है, इसमें लेश मान भी संशय की आवश्यकता नहीं हैं। लेकिन प्रयोगात्मक रूप से इस साधना में उतरते समय हमें जिन कठिन परेशानियों का सामना करना पड़ता है उनको शब्दों का प्रयोग कर आपके सामने रखना बड़ा ही कठिन कार्य है । तथा इसके साथ ही अपनी साधना के दौरान हुऐ इन अनुभवों को ठीक-ठीक शब्द प्रदान नहीं कर पा सकने के कारण ही लोग इन अनुभवों को गुप्त ही रखना ठीक समझते हैं। क्योंकि यदि कोई बात जिस प्रकार से कहनी चाही है और यदि कहीं भाषा की गड़बड़ी के कारण उसका अर्थ बदल गया तो बात गलत होकर उलट सकती है। जिसकी जिम्मेदारी फिर इस कहने वाले के ऊपर ही तो आती है। इसलिये इस विषय में अनुभव कर लेने वाले बहुत होकर भी शिक्षकों की संख्या समाज में हमेशा नगण्य सी ही रहती है।
जैसे यदि हम इस ग्वाले से ही पूछे कि उन तीन दिनों दौरान उस पर क्या-क्या बीती तथा उसने कितनी-कितनी परेशानियों का सामना किया, तो वह गवार बिना पढ़ा लिखा किस प्रकार से उन अनुभवों को अपने शब्दों में पिरोयेगा। उसकी तो ठीक वैसी ही हालत हो जावेगी जिस प्रकार उस गूगे व्यक्ति की हो जाती है;
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