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Achar
साधन से सिद्धियों की प्राप्ति
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गया जिसके कारण मुझमें उत्साह की वृद्धि हुई, वह दोहा था :
जिन खोजा तिन पाईयां गहरे पानी पेठ ।
मैं बैरन ऐसी ठगी गयी किनारे बैठ ॥
इस दोहे का मर्म, मेरे मन में उतरते ही बड़ी हिम्मत का संचार मुझमें हुआ, क्योंकि हमारा मस्तिष्क तो हमेशा कहता है कि पहले सीखों फिर करों लेकिन इस संसार में किसी कार्य को सीखने की एक मात्र शर्त ही यह है कि उस कार्य में स्वयं उतर जाओ डूब जाओ, वह डूबना ही हमें उस कार्य में परांगत कर देगा। इस शर्त को पूर्ण किये बिना हम सदा ही असफल रहेंगे। जैसे यदि कोई व्यक्ति अपने मन में इस विचार को जमा ले कि मैं पहले तैरना सीखूगा, फिर उसके बाद ही पानी में अपना कदम उतारुगा, जब तक वह इस उपरोक्त मानसिकता से ग्रस्त है तब तक वह सदा असफल ही रहने वाला है। क्योंकि किनारे पर हमें बिठाकर हमारा शिक्षक पानी तथा उसमें तैरने के बारे में अपने असख्य शब्दों के द्वारा कितने ही प्रकार से हमें क्यों न समझा दें लेकिन पानी की गहराई में उतरने का अनुभव तो हमें तब ही होगा जब हम पानी को अपने शरीर से स्पर्श होने देंगे अथवा तैरने का अनुभव या आनन्द तो हमें तब ही मिलेगा जब हम स्वयं व्यक्तिगत रूप से उसमें उतर कर तैरना जानेंगे।
इन उपरोक्त बातों को अच्छी तरह से समझ लेने के पश्चात् मैं उस समय उत्पन्न हुई अपनी तमाम मानसिक कमजोरियों पर विजय प्राप्त कर चुका था । इस प्रकार की कमजोरियाँ ही हमारे मन के उत्साह को कम कर देती हैं। कहने का अर्थ यह है इस दोहे के द्वारा जो हौसला मुझे मिला वह मेरी इस साधना के जल नक मुझे काम आया था । इन शंकाओं के अतिरिक्त एक परेशानी मुझे और थीं, किन क्या और किस तरह की प्रक्रिया अपनी साधना के दौरान अपनाऊँ । लेकिन शीत ही इस शंका की पूर्ति के लिए एक विचार मुझे आया, वह यह कि परिणाम की 'किसी भी मंजिल के उद्देश्य को अपने मन में धारण करके पहले से नहीं चलना है। क्योंकि यदि उसको सफलता अक्षरशः मेरे अनुभव में नहीं आयी तो बिना वजह हो मेरी भविष्य की संभावनाओं पर मेरे ही मन के द्वारा आघात पहुचेगा।
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