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साधन से सिद्धियों की प्राप्ति रखकर कमरे की लाइट बन्द करके उस दीपक की लौ को अपनी आंखों से अपलक देखकर नाटक करना शुरू कर दिया। मेरी सारी की सारी तैयारियाँ जो कि मैंने अपने पिछले दिनों में सीख रखी थीं यहां वे अपनी सम्पूर्ण क्षमताओं के साथ मेरे काम आ रही थी। आधे घन्टे के त्राटक करने में मुझे कोई भी नयापन महसूस नहीं हुआ, लेकिन बबुआ मेरी अपलक आंखों को देखकर विस्मित हुए बगैर नहीं रह सका । जिसकी परिणिति दूसरे दिन मेरे सामने आयी। मैं अपने शरीर पर मात्र दो अंगोछा- जिन्हें साफी भी कहते हैं लपेटे हुए था। दूसरे दिन वह मेरे लिए लकड़ी की नई खड़ाऊ खरीद लाया। तथा उसने अपने गायत्री मन्त्र के छपे हुए पीले कपड़े को खूब अच्छी तरह से धोकर मेरे सामने उसे स्तेमाल करने से लिए. रख दिया था। जब भी मैं कमरे से बाहर निकलता वह गायत्री मन्त्र वाला दुपट्टा तथा वे खड़ाऊ मेरे साथ ही होती थी। कुछ तो नीचे दुकानदारों से मेरे बारे में बबुआ के द्वारा वार्तालाप किये जाने की वजह से तथा कुछ मेरी ६ फुट की देहराशि के कारण से जब भी मैं बाजार में होकर गंगा स्नान करने के लिए कमरे से बाहर जाता था तो भारत साधु समाज के मेरे कमरे के पड़ोसियों को तथा नीचे के दुकानदारों को अपने बारे में उन्हें इशारा करते हुए या चर्चा करते हुए पाता था।
कार्यक्रम के दूसरे दिन मुझे मेरी आँखों के सामने कमजोरी के कारण अंधेरा सा आना शुरू हो गया था। नित्यकर्म करने में भी मुझे अब संभलना पड़ रहा था। एक बार सीड़ियों से उतरते समय आंखों के सामने अंधेरा आ जाने के कारण मुझे दीवाल का सहारा लेना पड़ा । पहले तो मैं सोच रहा था कि दो चार पलों में ही यह अंधेरा मेरी आँखों ओर मस्तिष्क में से चला जायेगा, लेकिन जब उस अंधेरेपन का समय बढ़ता ही गया तो मुझे भय मिश्रित विचित्रता सी होने लगी। मैंने भी सोच लिया कि जब तक मैं खड़ा रह सकता हूँ तब तो कोई नुकसान होने वाला नहीं है । शायद इसीलिए ही इतनी ज्यादा देर के घनघोर अंधेरे और सन्नाहटपन को आते हुए, गहराते हुए और बाद में जाते हुए, अपने मन की आँखों से उसे देखता रह सका था ।
जव मैं ठीक से उतर कर सड़क पर आ गया तो मैं परमात्मा को धन्यवाद दिये बगैर नहीं रह सका क्योंकि इस कठिनतम् घड़ी में भी मेरा होश जागृत रहा था, मैं सोचता हूँ कि साधारण अवस्था में वह थोड़ी सी देर की आती एवं जाती
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