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गुरू वह है जो होश जगाए, जागृति लाए, मार्ग दिखाए
चलाना सिखाएं।" सेनापति ने झुककर कोनिश बजाई और क्षमा मांगते हुये कहने लगा "महाराज आपकी आज्ञा शिरोधार्य है और यह मेरा सौभाग्य है कि मेरे द्वारा यह नेक काम अपनी पूर्णता को प्राप्त हो। लेकिन महाराज मेरी एक प्रार्थना है, अगर आप इजाजत दें तो आपके सामने उसे कहूँ ।" "बोलो...""कहो, क्या बात है।" महाराज ने कहा । इसके बाद सेनापति ने फिर से कहना शुरू किया "हुजूर, जिनके पास रहकर मैं स्वयं तलवार-बाजी सीखा हूँ और उसी तलवार की सिद्ध हस्तता के कारण आपने मुझे यह सेनापति के पद का सम्मान दे रखा है। आज भी वे मेरे परमात्मा तुल्य गुरू इस दुनियाँ में मौजूद हैं और सबसे आसान. बात यह है कि वे हुजूर के साम्राज्य में ही रहते हैं। लेकिन उनके द्वारा राजकुमार जी को तलवार चलाना सिखाने में बस एक ही कठिनाई है, कि वे अपने आश्रम के बाहर किसी को भी तलबार चलाने की कला सिखाने नहीं जाते हैं । इसलिये सीखने वालों को उनके आश्रम में ही रहना पड़ता है।"
__ काफी सोच विचार करने के बाद सम्राट ने राजकुमार को वहीं उन गुरुजी के आश्रम में रहने की अनुमति दे दी। जब राजकुमार को आश्रम में रहते-रहते दो मास व्यतीत हो गये तो एक दिन वह सम्राट शिकार से लौटते हुए उस आश्रम के फस से गुजर रहा था। तभी उसके अंगरक्षकों ने महाराज को सूचित किया कि हमारे राजकुमार इसी आश्रम में तलवार विद्या सीख रहे हैं । इतना सुनकर सबाट .. वहाँ पर रुक गया, और पोरे से उतरकर वहाँ आश्रम में बाबा से मिला, व म ने राजा का स्वागत किया, राजा भी यहीं के शान्त एवं सादगी से भरे वातावरण बहुत ही प्रभावित हुवावातचीत के दौरान राजा ने अपने पुत्र के बारे में अब के लिये नागपूछा कि "बारा यानी विद्या अभ्यास में लायब रहमासक कितना सीख गया संगममी बार कितना समयमा सिरहा , "राजनलवार लाना सीखना कोई मति सवाल नहीं है, जिसमें को ताक ने पोरतो दि, पटाना निवाला मार गुणा साना पार. बाये सिचाया। विरीत सरदार बाजीसीचना तो सर में एक घटना है । इसलिये मेरी एक रिश वापसे यही है कि मुझसे बह प्रश्न तो भविष्य में भाप पूछे ही नहीं, एक इसका तो स्वयं मुझे भी पता नहीं है। हाँ एक बात में अपनी तरफ से अवश्य स्वा
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