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भक्ति ही चैतन्यता का स्रोत
की गहराई को समझे ही मूर्ति पूजा की निन्दा की है । इस प्रकार के निन्दक लोगों में बहुत ही प्रतिभाशाली व्यक्तित्व भी रहे हैं। अगर वह इसको समझकर अपनी मेहनत को इस क्षेत्र में लगाते तो आज बात कुछ और ही होती।
आजकल स्कूलों में छोटे बच्चों को गिनती सिखाने के लिए तारों में पिरोई नई गोलियों से (जिसे अवेकस भी कहते हैं) गिनती सिखाते हैं क्योंकि स्कूल आने के पहले वह बच्चा कांच की गोलियों से ही तो अपने घर पर खेलता रहा था । यहाँ स्कूल में भी उस नितान्त अवोध बालक को आकर्षित करने के लिए गोलियों का ही स्तेमाल किया जाता है । ठीक इसी प्रकार इस मार्ग की साधना में नये-नये साधकों के लिए जिन्हें अभी यह बिलकुल पता ही नहीं है कि हम साधना किस प्रकार से करें इस साधन के प्रति उनमें आकर्षण जुटाने के लिए उनकी चित्त दशा के अनुसार मूर्ति चुनने की छूट देने में बुराई क्या है ? जिस प्रकार बालक जब गिनती सीख जाता है उसे उन तार में पिरोई हुई गोलियों की आवश्यकता नहीं रहती, ठीक इसी प्रकार जब साधक साधना का मर्म समझ लेता है तब वह द्वत पर अटका नहीं रहता और वह अपनी साधना के अगले चरण अद्वेत पर पहच जाता है। द्वेत का अर्थ होता है जहाँ दो हैं, एक भक्त और दूसरा वह जिसकी भक्ति की जा रही है। यानि भक्ति में कर्ता मौजूद रहता है और जब तक कर्ता मौजूद रहता है अपनी साधना में यह स्थिति द्वत की ही रहती है । और जैसे ही भक्त को भक्ति का महत्व समझ में आने लगता है तभी से वह अपने कर्ता भाव को तिरोहित करने में लग जाता है । तथा धीरे-धीरे वह अपनी साधना की लगन से यह जान ही लेता है कि कर्ता के भाव को तिरोहित करते-करते उसका वह साकार परमात्मा भी तिरो-- हित होने लगा हैं। क्योंकि वह साकार परमात्मा भी तो हमने जब प्रतीक के रूप में चुना था तब वह हमारी मानसिकताओं के अनुरूप ही तो था । और असल बात तो यह है, कि कर्ता होने का भाव समाप्त होते-होते हमारे मन में हमारे होने के जितने भी कारण हमें समझ आते हैं, वे तमाम समूल नष्ट होने लगते हैं। तब फिर क्या बचता है, तब तो केवल एक श्रद्धा का भाव बचता है जिसमें न तो भक्त होता है और न ही प्रतीकात्मक भगवान । इसी भाव को हम अद्वत भाव के शब्द से जानते हैं । अद्वैत यानी जहाँ दो नहीं, बस एक ही।।
इस तरह से हमारे भारतीय दर्शन में पहले साधक को गहरी बात समझाने
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