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चेतन मन से अचेतन मन पर पहुँचने का फल ही सिद्धियाँ
आपके इस पाँच छः फुट के शरीर के भीतर ही समाया हो ऐसा नहीं है । आपकी आदतें, आपके विचार, आपकी आकांक्षाएँ आपका यह स्थूल शरीर किसी भी प्रकार से कैसे हो सकता है । अगर गहरे में सोचकर आप देखें, तो आप यदि कहीं हो सकते हैं, तो आप अपने मन के आस पास ही हो सकते हैं । यहाँ तक तो हम अपनी अन्तर्दृष्टि से भी जान लेते हैं। लेकिन असल बात तो यह है कि हम हैं मन के भी पार बहुत दूर | और चूंकि प्राणायाम अपनी चरम अवस्था में हमें मन के भी पार ले जाता है जहाँ केवल प्राण ही शुद्धतम रूप में होते हैं । वहाँ पर भी यही प्राणायाम हमारे प्राणों के विभिन्न आयामों को हमें दर्शाने की क्षमता रखता है । इस मार्ग के मूर्धन्य साधक एवं महान योगी महर्षि पतन्जिलि ने इस सम्पूर्ण क्रिया को एक सूत्र में इस प्रकार से लिखा है :
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यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयो अष्टावङ्गानि ।
हम किसी बन्द कमरे में हैं, और खिड़की के धुंधले शीशे से कमरे में प्रकाश hi आता हुआ देखते हैं तो हम स्वाभाविक रूप से यही सोचते हैं कि प्रकाश खिड़की से हमें मिल रहा है । लेकिन जब हम प्राणायाम के द्वारा अपने नेतन मन को निर्मल बना लेते हैं जिसके कारण हमारे चेतन मन की खिड़की का शीशा साफ हो जाता है तब हम इस चेतन मन रूपी खिड़की पर अटके नहीं रहते तब तो शीशे के साफ हो जाने के कारण अपने आप बिना किसी के बताए हुए ही हमें सूर्य का साक्षात होने लगता है । और केवल इसी उद्देश्य की पूर्ति हमें इस प्राणायाम की क्रिया के द्वारा होती है ।
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लेकिन यह होगा तब ही जब आप अपनी भौतिक देह को शुद्ध और सरल बना लेंगे, नहीं तो हमारा यह शरीर हमारी साधना में वाधा बनकर सामने आ जावेगा । इस बात को समझने के लिए हमें फिर से उस खिड़की का सहारा लेना पड़ेगा । मानाकि हम कमरे में मौजूद हैं, खिड़की का कांच भी साफ है लेकिन अब भी यह जरूरी तो नहीं है कि हमारी स्वयं की आँख जब तक ठीक न हो हमें प्रकाश दिखाई दे ही जाए | इसलिए जब तक हमारी आँख ही निर्मल नहीं होगी तब तक सूर्य हो या न हो, खिड़की हो या न हो, क्या फर्क पड़ता है हमें प्रकाश हमारे पास पहुँचते हुये भी दिखाई नहीं दे सकता । इसलिए हमें यदि प्राणायाम साधना है तो