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त्रिगुणातीत अवस्था का बोध
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ठीक बिल्कुल ऐसी ही स्थिति भक्त और भगवान की रहती है । यहाँ साधक को यह बात ध्यान नहीं करनी चाहिये कि उसके सामने साक्षात भगवान महाजन की तरह मौजूद हैं कि नहीं । और वह साधक से कहेगा कि लाओ तुम्हारी कमाई या उपलब्धियों को मुझे सौंप दो । कृष्ण ने गीता में एक बार कह दिया है जो भी तुझे प्राप्त हो उसे मुझे ही अर्पण कर । और इस बात को मानकर जब साधक अपनी क्षुद्र सी उपलब्धि को उस परम पिता को सौंपने को तैयार हो जाते हैं, तब उसी पल से उनका सम्बन्ध उस परम पिता से जुड़ जाता है। फिर वह अपने द्वार हमारे लिये खोल देता है । हम अपना हिसाब भी तो साफ करें। जब हम किसी को अपना एक पैसा नहीं दे सकते हैं तो हम उससे अथाह रुपयों की चाह किस अधिकार से रख सकते हैं ? जिस प्रकार उस लड़के के अपने पाँच रुपयों को महाजन को सौंपते ही वह लड़का उस तिजोरी की चाबियों को पाने का अधिकारी हो गया था ठीक उसी प्रकार हम अपनी साधना की प्राप्ति को परमात्मा को सौंपते ही उसकी परम सत्ता से जुड़ जाते हैं ।
इसी सन्दर्भ में एक बात का ध्यान और रखें यदि इसके विपरीत हमने अपना अहम् इतना अधिक बढ़ा लिया है कि अब तो मेरे पास सिद्धियाँ हैं । इसलिए मैं स्वयं ही सब कुछ हूँ। जो कुछ भी मैं सोचता हूँ कालान्तर में वही सत्य सिद्ध होता है । एक तरह से ऐसा सोचना उसका स्वाभाविक भी लगता है । क्योंकि जहाँ वह व्यक्ति मौजूद है वहाँ इस स्तर पर भूखे और कंगाल ही तो अन्य लोग हैं । लेकिन उसे अन्धों का सरदार बनना है तो बात इस तरह से भी चल सकती है कि स्वयं काना बना रहे । इस स्थिति में तो कहीं भी किसी को तकलीफ नहीं होगी। लेकिन यदि हमें अपनी दोनों आँखों को खोलकर सूझता बनना है तो किसी प्रकार हमें उस बड़े महाजन से अपना सम्बन्ध जोड़ना ही पड़ेगा । उस बड़े महाजन से अपने सम्बन्ध जोड़ने का बस एक ही रास्ता है और वह यह है कि हम उसके लिए मिट जायें।
अगर हमने उसका अपने आप को गुलाम समझ लिया तो समझो हम उससे जुड़ गये इसके विपरीत कहीं हमने उसको ही खरीदने की सोच ली तो समझ लेना कि हमारा पतन सन्निकट ही है ।
सुबह जब सूर्य उगता है तब तारे उसके सामने कितनी देर ठहर पाते हैं ।
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