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त्रिगुणातीत अवस्था का बोध ।
होती है। लेकिन आध्यात्मिक प्राप्तियों के बाद यदि हम उनके नशे में डूब गए तो समझ लेना कि यह नशा इतना ज्यादा गहरा होता है कि फिर बीच में तो होश ही नहीं लेने देता है। जब तक कि हमारे तमाम नशे की खुमारी हमारी बुद्धि के ऊपर से उतर नहीं जाती है। जब तक हमारा होश जागत हो पाता है तब तक हमारे पास जो कुछ भी प्राप्तियाँ थीं, वे सभी को सभी लुट चुकी होती हैं अथवा निष्क्रय हो चुकी होती हैं हम फिर वही कंगाल के कंगाल । अव तो हमारा दुःख कुछ और ज्यादा बढ़ा हुआ होता है क्योंकि यदि जन्म से कंगाल हो उसका क्या दिवाला निकलेगा। लेकिन यदि किसी के जीवन में रहीसी आकर उसका दिवाला निकल जाये, तब फिर उसका दुःख सीमित नहीं होता बल्कि असीमित हो जाता है । हालाँकि ऐसा कभी नहीं होता कि जितनी क्रियाएँ हमने पिछली प्रार्थना के दौरान को हैं। उनका अस्तित्व भी हमारे संस्कारों में न रहे । लेकिन दोबारा प्रार्थना शुरू करने में हमारे सामने अब बड़े अवरोध पैदा हो जाते हैं। जिनके कारण वो तमाम शक्तियाँ जो अभी कुछ समय पूर्व हमारे अन्दर प्रकट होने लगी थीं, हमारे चेतन मन से उतर कर फिर दोबारा से अचेतन मन पर पहच जाती हैं। क्यों खड़े हो जाते हैं ये अवरोध ? और क्यों हम इन शक्तियों के नशे में डब जाते हैं ? ये क्या उलट फिरैया हैं ? क्या ऐसा सभी साधकों को होता है; या इस मार्ग से चलने वाले प्रत्येक साधक को इस अवनति के रास्ते से गुजरना पड़ता है ?
__ कुछ समय पहले एक डाक्टर मित्र से बात हो रही थी। मैंने उनसे पूछा कि "ऐसा क्या कारण है कि शराब का एक ही गिलास मनुष्य के मस्तिस्क पर इस कदर छा जाता है कि जीनियस से जीनियस बुद्धि वाला भी उसके प्रभाव से अछूता नहीं रह पाता ?" इसके उत्तर में वह डाक्टर मित्र मुझसे बोला, "हम खाना खाते हैं तो वह हमारे पेट में जाकर पहले पचता है, तब ही उसकी शक्ति कैलोरी के रूप में हमारे खून को प्राप्त होती है, जिसके कारण हमारा मस्तिष्क स्वस्थ महसूस करता है, या हम स्फूर्ति महसूस करते हैं, लेकिन यह शराव कोई हमारे खाने जैसी वस्तु नहीं है कि वह हमारे पेट में जाकर पहले पचेगी और फिर हमारी सहनशीलता के अनुरूप हमें उसकी कैलोरिक शक्ति प्राप्त होगी। जबकि यह तो डाइरेक्ट कैलोरी है, इसको पचने की आवश्यकता नहीं है। यह तो सीधे-सीधे ही हमारे पेट से खून को अपनी शक्ति को अत्याधिक तीव्र गति से पहुंचा देती है, जो हमारी आदत के मुताबिक सहनशील नहीं हो पाती और इसी कारण से हम विचलित हुए वर्गर नहीं रह पाते हैं।"
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