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त्रिगुणातीत अवस्था का बोध
७७.
लेकिन जैसे ही वे इस भवन के बाहर उस खिड़की द्वारा कूद जाते हैं । वे इस भवन से अपने सभी प्रकार के सम्बन्ध तोड़ लेते हैं । अथवा वे तब ही कूद पाते हैं उस प्रकृति के आगोश में, जब वे सभी प्रकार के माया के बन्धनों से अपना पीछा छुड़ाकर इन पर विजय प्राप्त कर लेते हैं। और इस प्रकार फिर वह अपने स्वयं की पहचान को अपने प्रत्येक स्तर पर मिटाकर उस महामत्य को प्राप्त करते हैं। अब वह किसी भी स्तर पर नहीं बचता है, अब तो उसकी प्रार्थना ही बचती है । ध्यान रखना! प्रार्थना भी उसके स्तर को नहीं बचती बल्कि प्रार्थना भी प्रार्थना के ही स्तर की बचती है। इसी अवस्था को त्रिगुणातीत को अवस्था कहते हैं।
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