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Achar
योग और साधना
उनके सामने पाँच रुपये निकाल कर रख दिये। आज पिछले दिनों जैसी अकड़ भी नहीं थी वहाँ बैठे हुए सिर भी झुका हुआ था । महाजन बोला, “जाओ इनको सामने वाले कूओं में डाल आओ।" लड़का वैसे ही ज्यों का त्यों बैठा रहा, जैसे उसने कुछ सुना ही नहीं हो । महाजन ने अपने शब्द दुबारा से दोहराये । अबकी बार लड़के ने अपना सिर ऊपर उठाया और आँखों में आँसू भरके बोला, "इतनी मेहनत से मैंने ये पाँच रुपये कमाए हैं और आप इन्हें कूओं में फेंकने की बात कह रहे हैं । मेरी समझ में नहीं आता कि अब और कौनसी बात रह गई है। जिसे आप मुझसे कराना चाहते हैं । और चूंकि मेरी मेहनत की कमाई है । इसलिए इस कमाई को भी मैं अपने पास ही रखंगा।"
जव महाजन ने देखा कि बेटे को पैसे का महत्व समझ में आ गया है । तब वह अपने बेटे से बोला, "उन रुपयों को मुझे दे दो मैं उन्हें अपनी तिजोरी में रख देता हूँ। आज मुझे बेहद खुशी हो रही है कि आज तुमने कमाने का महत्व जान लिया है । आज मुझे ठीक वैसी ही खुशी हो रही है जैसी कि तब हुई थी जब तूने पहली बार पावों से खड़े होकर चलकर दिखाया था।"
लड़के का असमंजस बढ़ता ही जा रहा था । वह कैसे इन तथ्य भरी बातों को समझता । क्योंकि कहाँ तो ये इन रुपयों को थोड़ी देर पहले कूओं में फेंकने की. कह रहे थे और अब इनको तिजोरी में रखने को कह रहे हैं । ये चक्कर क्या है ? ये किसी भी हालत में इन रुपयों को मेरे पास क्यों नहीं रहने देते? लड़के को टालते हुए देखकर वह महाजन फिर से बोला, "किसी भ्रम में नाहक तू मत पड़। मैं तेरा पिता हूँ, में तुझसे कोई छल प्रपंच नहीं कर रहा हूँ।"
लड़के ने पिता की आज्ञा मानकर वो रुपये अपने पिता को दे दिये । महाजन ने उन पाँच रुपयों को अपने माथे से लगाया फिर अपनी तिजोरी को खोलकर उसके अन्दर रख दिये । और तिजोरी का ताला यथावत लगाकर उसकी चाबियों के गुच्छे को अपने लड़के को सौंपते हुए उसने कहा, "बेटा, अब मेरे मन में तेरे प्रति किसी प्रकार का भी संशय नहीं है । इसलिए आज से इनको अब तू ही संभाल । मैं बसे भी अब बुढढ़ा हो गया हूँ, सारा काम अब तुझे ही करना है । मैं तो बस ऊपर की निगरानी करता रहूंगा।"
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