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योग और साधना
बात अच्छी तरह से समझ लेनी चाहिए कि, हमें अपने आप को मन के स्तर पर मिटना स्वीकार करना ही होगा । अपने मन का तमाम कूड़ा करकट जिसे हम आज तक स्वयं का स्वरूप समझे हुए थे, जलाकर खाक करना होगा । और वह भी केवल क्षीण सी आशा के साथ जो कभी मिलेगी दूर और बहुत दूर ।
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कबिरा खड़ा बजार में लिए लकुटिया हाथ । जो घर बारे आपना, वो चले हमारे साथ ॥
जो स्वेच्छा से खुशी-खुशी अपने मन के घर को जलाने को राजी है कबीर दास जी केवल उसको ही अपने साथ ले चलने को तैयार हैं, अन्य किसी को नहीं । क्योंकि और कोई भी जिसने अभी इतना सा भी कार्य अपने ऊपर नहीं किया है वह तो इस दुर्गम साधना का पात्र भी नहीं हो सकता है ।
लेकिन किस प्रकार से हम अपने मन के घर को जलायें ? इसको क्रियात्मक रूप में समझने के लिए हमें क्रमबद्ध रूप से धीरे-धीरे और धैर्यपूर्वक तपश्चर्या करनी होगी। जिसके फलस्वरूप पहले शरीर पर फिर बुद्धि के विचारों पर और अन्त में तभी हमारे मन पर चोट होगी । इस तथाकथित तपश्चर्या को ही हम योग साधना कहते हैं। योग का शब्द आते ही प्रश्न उठता है कि योग का तो इतना बड़ा क्षेत्र है उसमें से हम अपनी साधना योग कहाँ से शुरू करें। इसके उत्तर में मुझे केवल इतना ही कहना है कि हमें शुरू में जिस प्रकार से भाषा पढ़ते समय क ख ग सीखने पड़ते हैं और फिर बाद में हम सुलेख लिखना सीख जाते हैं ठीक इसी प्रकार से योग सीखते समय भी साधक को यही रुख अपनी साधना के दौरान अपनाना चाहिए । अन्त में जब हम योग की प्रक्रियाओं के द्वारा प्राणायाम सिद्ध कर लेते हैं तब ही हमें पता चलता है कि प्राणायाम ही सभी बिन्दु है । और यही एक मात्र साधन है जिसके द्वारा हम मन संयम में कर सकते हैं । शरीर पर संयम तो हम योगासनों के अभ्यास के द्वारा भी करना सीख जाते हैं लेकिन मन पर संयम तो हम प्राणायाम के द्वारा ही प्राप्त करते हैं ।
साधनाओं का आधार
के विचारों को अपने
यहां इसी संदर्भ में एक बात और गौर करें। आपका यह आँखों से दिखाई देने वाला स्थूल शरीर ही तो आप नहीं हो सकते हैं। आपका सम्पूर्ण व्यक्तित्व
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