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चेतन मन से अचेतन मन पर पहुँचने का फल ही सिद्धियाँ
यद्यपि उपरोक्त तीनों प्रकार की प्रार्थनाओं में क्रमशः मन भी है, वचन भी है और कर्म भी है । लेकिन जब तक मन, वचन और कर्म एक ही प्रार्थना में एक साथ निस्वार्थ नहीं जुड़ते तब तक हमारी प्रार्थना अधर में ही अटकी हुई होती है । क्योंकि हमारी जितनी भी क्षमता मन, वचन, कर्म के रूप में थी वह हमने लगा तो दी लेकिन अपने स्वार्थ को साथ में रखकर लगाई गलत रास्ते पर । इसी कारण से वह व्यर्थ ही चली गई । जबकि हमें इस प्रार्थना के मार्ग को समझने के लिए यह चाहिए कि मन को लगाएँ, उसकी श्रद्धा तथा चिन्तन में, वचन की शक्ति को लगाएँ ज्ञान में या सत्संग में, और कर्मों को लगायें उसकी ही क्रियाओं में, यानि कि यौगिक क्रियाओं में । अर्थात
" तपः स्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि क्रियायोगः ।"
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सर्वप्रथम जब तक हमारा चित्त बिल्कुल निर्मल नही हो जाता, तब तक हम इस मार्ग की पहली सीढ़ी ही नहीं चढ़ सकते हैं । चित्त को निर्मल करने के लिए हमें अपने आप पर अपनी सम्पूर्ण लग्न के साथ में मेहनत करनी होगी, क्योंकि अभी तक तो जन्म-जन्मों के संस्कारों का मैल हमारे चित्त पर जमा पड़ा है । जिसको बिना मेहनत किये हटाना इतना सरल कहाँ है । हमें हमारे मन के मन्दिर को खाली और साफ तो करना ही होगा। नहीं तो उस अमूर्त को कहाँ विराजमान करायेंगे । क्योंकि जब तक हमारा मन निश्चल तथा निष्कपट नहीं है तब तक ऐसा सम्भव कहाँ है ? मन के अलावा अन्य कोई स्थान उसको विराजमान करने के लिए हमारे पास नहीं है । फिर भी एक बात और है, उस मन में हम रहेंगे या वह हमारा परमात्मा, इसलिए ही कबीरदास जी ने कह दिया है कि
प्रेम गली अति साँकरी, जामें दो न समाएँ ।
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हमारा मन अभी तक तो पद, प्रतिष्ठा, मान-सम्मान, स्त्री, धन, पुत्र, वैभव, ऐश्वर्य और न जाने कितने ही सांसारिक स्वार्थों से भरा पड़ा है इसलिए वह कैसे मन के मन्दिर में उतरे । उसकी तरफ से तो सदा कृपा की बरसात होती ही रहती है । हमारे ही घड़ों में जगह नहीं है । या तो हम और हमारे स्वार्थ वहाँ रहेंगे या वह और उसकी कृपा । हम ही अड़चन हैं उसके आने में। क्योंकि जब तक बीज -मिटने को तैयार नहीं हो जाता तब तक अंकुर कैसे फूट सकता है। बीज को तो अपना मिटना स्वीकार करना होगा ही । तभी वह बीज अंकुरित हो सकेगा । इसलिए यदि हमें परमात्मा के क्षेत्र में प्रवेश करने का प्रवेश पत्र लेना है, तो यह