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भक्ति ही चैतन्यता का स्रोत
दूसरा आपकी कोई अँगुली चीर दे तो कोई खास बात नहीं होती, लेकिन जरा अपने हाथ से अपनी अंगुली को चीर कर तो देखो, मालुम हो जायेगा अपनों का दर्द कैसा होता है । रास्ते में कोई गुण्डा आपको थप्पड़ मार दे आप घर चले आयेगें एक दो दिन में भूल भी जायेगें, लेकिन कहीं आपका भाई आपको थप्पड़ मार दे तो आप जिन्दगी भर उसे नहीं भूल पाते हैं, यही होता है मन का दर्द । आप सारे संसार को थका सकते हैं लेकिन आप अपने ही मन के सामने थक जायेगें और ऐसा यहाँ इस पृथ्वी पर जीवित प्रत्येक इन्सान के मन में होता है । इसके साथ ही यह बात बड़े अच्छे तरीके से हमारी समझ में आ जाती है कि, जहाँ-जहाँ मन है बहाँ-वहाँ बैचेनी होती है । जहाँ मन ही नहीं है वहाँ बैचेनी भी कैसे होगी? इसलिए वहाँ इन्सानियत भी नहीं होगी। चैतन्यता भी कैसे होगी ? वहाँ तो जड़ता होगी, जहाँ जितनी ज्यादा चैतन्यता होगी वहाँ उतनी ज्यादा ही बैचेनी होगी । और जितने ज्यादा जोर से आप बैचेन हो जायेगें उतने ही ज्यादा जोर से उस बैचेनी से छुटकारा पाने की कोशिश पायेगे आप अपने मन के भीतर ।
__ इसी एक मात्र कारण की वजह से जो व्यक्ति जितना ज्यादा भावुक होगा उतना ही ज्यादा आप उसको प्रार्थनामय पाओगे । क्योंकि प्रार्थना तो भावनाओं की किरणों पर ही उदय होती है। प्रार्थनामय जीवन तो केवल उसका ही बनता है जो, अपने दिल में दर्द पालना जानता हो जो व्यक्ति भावना शून्य है उसे तो प्रार्थना के द्वार पर दस्तक देने का भी अधिकार अभो नहीं मिला है। भक्ति के लिये तो हमें प्रेम से भी ऊपर उठकर अपनी भावनाओं को और कहीं लगाना होता है ।
मैंने पहले लिखा है कि, भावनाओं के द्वारा जब हम शरीर की प्रार्थना करते हैं उसे हम प्रेम कहते हैं। लेकिन जब हम उन्हीं भावनाओं को श्रद्धा द्वारा अशरीरी की प्रार्थना में लगाते हैं उसे हम भक्ति कहते हैं । इस बात के दो विषय वस्तु हैं, एक है भावना जो चैतन्यता का द्योतक है और दूसरा है शरीर जो जड़ता का प्रदर्शन करता है इसलिए ही प्रेम में कभी हम भक्ति की तरफ जाते हुये प्रतीत होते हैं लेकिन कुछ समय पश्चात हम अपने आपको शारीरिक इन्द्रिय जाल में फंसा हुआ पाते हैं । प्रेम में आधी भक्ति है और आधा काम, यानी भक्ति और काम का सम्मिश्रण है प्रेम । दूसरी स्थिति वह है जब हम उन्हीं भावनाओं के द्वारा किसी अशरीरी को प्रार्थना करते हैं तो वह भक्ति कहलाती है जिसमें दोनों ही पहलू स्थूल
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