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योग और साधना
की जड़ता से दूर हट जाते हैं। जिसके कारण से भक्ति मैं केवल चैतन्य भाव ही बचता है । इसलिये भक्ति में प्रेम की तरह के से बन्धन नहीं बनते हैं इसीलिये ही भक्ति, दो व्यक्तियों के बीच नहीं हो पाती या दो स्थूलों के बीच नहीं हो पाती। 'भक्ति तो भक्त के मन और भगवान के बीच में ही होती है।
लेकिन शुरू-शुरू में साधक को या भक्त को एक विशेष कठिनाई आती है कि वह अपने मन की भावनाओं को किस तरफ फेंके या प्रवाहित करे । वह किसका चिन्तन करे, वह किसकी भक्ति में पड़े। हमने इस संसार में रहते हुये अभी तक स्थूल स्वरूपों को ही अपने नजदीक पाकर दूसरे शरीरों से प्रेम करना सीखा है । आजतक यही बात हमारे गले उतरी है कि हम अपनी भावनाओं को किसी की निगाहों में या किसी के चरणों में अपित कर सकते हैं। यहाँ भी यही आदत इस उपरोक्त कठिनाई का कारण बनती हैं ।
__इसी बात को ध्यान में रखकर हमारी भारतीय संस्कृति में, शुरू में साधक को यह छूट दी गई है कि वह कोई भी प्रतीक जो उसे शुभ लगे, आकर्षित लगे उसे बह चुनकर अपना सकता है और देखा गया है कि हम प्रतीक भी उसी प्रकार के चुनते हैं जिस प्रकार की हमारी स्वयं की मानसिकता होती है । जैसे कुछ लोग मां स्वरूप को साधने के लिए देवी का चयन करने हैं। कुछ लोग कृष्ण का बाल स्वरूप स्वीकार करते हैं या कुछ जो आदर्शवादी मानसिकता से परिपूर्ण है, तो वह राम का सहारा लेते हैं, और कुछ जो क्रियात्मक विचार के हैं वह महायोगी कृष्ण को अपना प्रतीक मानते हैं ।
हमारे भारतीय दर्शन, भारतीय संस्कृति अथवा हिन्दू धर्म के मान्य प्रतिपादित सिद्धान्तों में सबसे महत्वपूर्ण यदि कोई सिद्धान्त है तो वह यही है कि वह हमें साकार की पूजा करने की छूट देता है । अथवा मूर्ति पूजा हमारी संस्कृति को देन है। इस साकार को जानबूझ कर हमारी साधना पद्धति में शामिल किया गया है । सबसे पहले हमें इसी द्वार से गुजरना होता है । भले ही थोड़े समय के लिए ही सही । क्यों रखा गया है यह साकार का द्वार हमारे और निराकार के बीच ? क्या हमारा रास्ता लम्बा करने के लिए ? अथवा हमें मुख्य मार्ग से हटाने के लिए? अथवा हमारे रास्ते को संगीतमय या मधुर बनाने के लिए? इसको जरा गौर पूर्वक और धैर्य पूर्वक भी समझने की चेष्टा करें। क्योंकि बहुत से लोगों ने बिना इस बात
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