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भक्ति ही चैतन्यता का स्रोत
आपको उसके अंश के रूप में ही समझते रहे हैं । और जब यहाँ की सब जीवामायें उसकी अंश मात्र हैं तो फिर न तो कोई पराया है और न ही कोई विशेष रूप से अपना है। तब वे तमाम दुनियाँ की दकियानूसी विचारधारा से ऊपर उठ जाते हैं । उनके लिये जाति, धर्म, राष्ट्र ये तमाम बड़ी-बड़ी बातें गौण हो जाती हैं । तथा इस प्रकार के लोग इस सारे के सारे संसार को सराय रूप में जान देते हैं । यहाँ रहने वाली सभी जीवात्मायें यहाँ की यात्री हैं। है, और कोई पाँच दिन बाद में । किसी के पास पाँच और किसी के पास पाँच दिन का अनुभव कम । करके (किसी को अभी किसी को थोड़ी देर बाद में ) पहुँचना ही है ।
कोई पाँच दिन का
दिन पहले आया अनुभव ज्यादा है
एक दिन इस सराय को खाली अपने-अपने गन्तव्य स्थल पर
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इस प्रकार के लोगों को संसार की प्रत्येक वस्तु में एक जैसा प्रेम होता है ये किसी के साथ अप्रेममय तो रह ही नहीं सकते । फूल और काँटे, दुःख और सुख, शुभ और अशुभ, जबानी और बुढ़ापा, अच्छा या बुरा, जीवन और मृत्यु इन तमाम सांसारिक बातों को उस अंशी, जिसके हम सब अंश हैं, उसी के प्रसाद के रूप में ग्रहण करते हैं । यही हमारी भारतीय संस्कृति का स्वरूप है । तथा इसी को अच्छी तरह से साधक समझ कर वह अपनी प्रार्थना के भविष्य के संभावित स्वरूप को जान पाता है ।
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इस प्रकार से प्रार्थना या भक्ति के स्वरूप को जानकर ही, हम अपने सूक्ष्म एवं आन्तरिक स्रोत को जान पाते हैं। जिसके तहत हम मस्तिष्क की जड़ता को समझकर मन की या अपने भीतर की अस्मिता की चैतन्यता को जानते हैं और केवल तब ही हमें पता चलता है, कि अपनी चैतन्यता के स्रोत को जानने के लिए, भक्ति के अतिरिक्त अन्य कोई भी साधन साध्य नहीं हो सकता है । क्योंकि कोई भी शत्रुता मोल लेकर कहीं किसी के भेद ले सकता है। जबकि प्रेम में हमें हमारे सामने ऐसी बातें भी प्रकट हो जाती हैं जिनकी हमें पूर्व में कल्पना भी नहीं होती है । हम उस चैतन्य ब्रह्म को जानने के लिए अनन्य प्रकार से तरीके अपना सकते हैं, लेकिन बिना भक्ति को उसमें सर्वोपरि रखकर हम उसी प्रकार से असफल रहेगें जिस प्रकार से सूखे ठूंठे पर फूल खिलने की कामना करके हम रहते हैं ।