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भक्ति ही चैतन्यता का श्रोत
मस्तिष्क उस चैतन्य को नहीं जान पाता है, जहाँ से इन जड़ तुल्य क्रियाओं की डोर बँधी है । अगर मस्तिष्क अपने आप में स्वयं चैतन्य होता तो अपने चैतन्य स्वरूप के कारण उस चैतन्य शक्ति को अवश्य ही पहचान लेता। यही एक कारण है जिसके द्वारा हमें पता चलता है कि हमारा मस्तिष्क * भी जड़ ही है । इसलिए मेरा कहना यहाँ केवल इतना ही है कि यदि हमें उस चैतन्य को जानना है तो उसकी
* मस्तिष्क-आध्यात्म में बुद्धि को चैतन्य माना गया है जो स्थूल शरीर के साथ-साथ सूक्ष्म शरीर में भी विद्यमान रहती है, जबकि मस्तिष्क एक स्थूल शारीरिक अवयव है, इसलिए बुद्धि तथा मस्तिष्क में स्पष्ट अन्तर समझा जाना चाहिए।
प्राप्ति का साधन कम से कम म स्तिष्क तो नहीं बन सकता है । बात भी सीधी सी ही है जड़ के द्वारा हम चैतन्य को कैसे जान सकते हैं । जबकि चैतन्य के द्वारा चैतन्य को जानने का कारण हमारी समझ में आ भी सकता है ।
मस्तिष्क के अलावा हमारे पास एक शक्ति के रूप में मन और है जो, हमें अपनी विचारशीलता के कारण हर समय क्रियान्वित रखता है। लेकिन मन को जानने के लिए हमें थोड़ा कल्पना में उतरना होगा। चूंकि मन का कोई स्थूल स्वरूप हमारे समक्ष नहीं है । इसलिए ही मस्तिष्क की कोई भी कार्य शैली यहाँ काम नहीं आ सकती है। यहाँ तो मन पर विचार करते समय केवल कल्पना ही हमारे काम आ सकती है। क्योंकि कल्पना के द्वारा ही हम चिन्तन कर सकते हैं या इस आध्यात्म दर्शन में उतर सकते हैं । असली बात तो यह है कि, जहाँसे यह स्थूल संसार मिटता है वहीं से सूक्ष्म संसार शुरू होता है । जहाँ से जड़ता मिटती है वहीं से चैतन्यता शुरू होती है । इसलिए पहले हमें स्थूलता से मस्तिष्क के स्तर पर छुटकारा पाना होगा तभी हम सूक्ष्म स्वरूपा मन पर अपना अनुसन्धान कर सकेगे । क्योंकि हमारे पास कर्ता तो अकेला ही है। चाहे उसे हम मस्तिष्क के स्तर पर व्यस्त रखकर बाहरी संसार के कार्य-कलापों को उससे कराते जायें, अथवा उस कर्ता की शक्ति को मन में लगाकर अपने भीतर के आंतरिक संसार में उतरकर गोता लगायें ।
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कुछ लोगों की यह धारणा होती है कि कल्पना भी तो मस्तिष्क के द्वारा
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