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भक्ति ही चैतन्यता का स्रोत . शुरू-शुरू में हम अपने होश में अपने आस-पास के बड़े और स्यूल परिवर्तनों को पकड़ना जानते हैं और इसके बाद के गहरे अभ्यास के द्वारा हम अपने अन्दर के सूक्ष्म परिवर्तनों से भी अपना साक्षात करके उनके स्त्रोत को भी जान जाते हैं ।
जैसे कि हम किसी वायुयान से सफर कर रहे हैं हमारी सीट की बगल वाली खिड़की से हमारी आँखों पर धूप आ रही है । इस प्रकार की स्थिति में हमारी आँख का पर्दा (डायफ्राम) सिकुड़ा रहता है ।
लेकिन थोड़ी देर बाद ही वह वायुयान जब बादलों के बीच में से गुजरता है तब हमारी आँखों के सामने से धूप के हटते ही या प्रकाश के कम होते ही हमारी आँख का वही परदा, अब अपने आप फैलकर ज्यादा खुल जाता है । लेकिन हमारी आँखों के अन्दर हए इस परिवर्तन को हम जान नहीं पाते हैं। इसमें आश्चर्यचकित कर देने वाली कोई विशेष बात नहीं है, यह तो हमारी आँख की एक स्वाभाविक प्रक्रिया है । ठीक इसी प्रकार से हमारे शरीर और मन के भीतर अलग-२ तरीकों से अलग-२ तरह के सूक्ष्म परिवर्तन लगातार होते रहते हैं लेकिन हमें पता नहीं चलता है।
आव्यात्म के मार्ग पर चलने वाले साधक हमेशा जागरूक रहकर इन सूक्ष्म परिवर्तनों पर हर पल अपनी निगाह रखे रहते हैं । तथा कई एक श्रम साध्य साधनाओं में निरन्तर लगे रहकर अपनी क्षमताओं में ज्यादा से ज्यादा वृद्धि करते ही जाते हैं । जिसकी वजह से इस प्रकार के साधकों का इस जागृति के प्रति बाद में इतना प्रबल आत्म विश्वास बढ़ जाता है जिसके कारण उनके समक्ष आने वाली किसी भी प्रकार की बाधा फिर उन्हें विचलित नहीं कर पाती है। क्योंकि, उन्होंने अपनी निगाह शुरू से ही बदलती हुई परिस्थितियों पर केन्द्रित की हुई थी। जिसकी वजह से कोई भी घटना इनके समक्ष एकदम से अकस्मात रूप से प्रगट नहीं होती है । और इसी कारण से ही इस स्तर के लोगों को हतप्रभ होते हुए भी नहीं देखा जाता है। इन लोगों के पूर्वानुमान भी अधिकतर इसी कारण से ही सही निकलते हैं।
कक्षा का अध्यापक अपने विषय में छात्रों के आने वाले संभावित परीक्षाफल का अनुमान भली-भांति लगा ही लेता है क्योंकि उसने अपने सम्पूर्ण सत्र के दौरान आने वाले प्रत्येक दिन के, प्रत्येक घण्टे का होशपूर्वक अपने से साक्षात होने दिया होता है । और ठीक इसके विपरीत यदि वही अध्यापक चिहीन तरीके से अपना
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