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योग और साधना
ही हमारी बुद्धि में पहुँचती है । और जितना भी प्रयत्न करते हैं तो हमें ऐसा ही लगता भी है क्योंकि, तथ्यागत हमारा प्रत्येक कार्य मस्तिष्क के द्वारा ही तो होता हुआ हमें प्रतीत होता है । लेकिन मस्तिष्क हमारे पास एक यंत्र या कम्यूटर के रूप में हमारे शरीर में होता है। जबकि ज्ञान हमारे सूक्ष्म या काल्पनिक मन के भीतर रहता हैं । मन के भीतर का सूक्ष्म अवस्था का आवरण लिए हुए वही ज्ञान जब मस्तिष्क के द्वारा स्थूल अवस्था में आकर प्रकट होता है तब हमें ऐसा हो तो लगेगा जैसे कि, वह हमारे मस्तिष्क के द्वारा ही हमें प्राप्त हो रहा है । हमें दिखाई तो आँख के लैन्स से देता है लेकिन देखने वाला मस्तिष्क के आदेशों से युक्त कोई अन्य परदा है।
इसके बावजूद भी एक शंका लोगों को ओर उठती है कि जिस मन का परिचय हमसे केवल कल्पना में ही होता है उसका अस्तित्व हम क्या मानकर तथा किप प्रकार से स्वीकार करें।
हम एक उत्तल लैन्स के द्वारा भौतिक विज्ञान की प्रयोगशाला में किसी वस्तु का प्रतिबिम्ब पर्दे पर बना लेते हैं । वह पर्दे पर दिखाई भी पड़ता है उसका फिल्म पर फोटो भी खींचा जा सकता है इसलिए उसे हम वास्तविक प्रतिबिम्ब कहते हैं । दूसरी ओर एक साधारण दर्पण के सामने हम स्वयं खड़े हो जाते हैं तब भी हम एक प्रतिबिम्ब अपने ही चेहरे का उसके भीतर देखते हैं । लेकिन उसे छू नहीं सकते उसे परदे पर नहीं बना सकते । इसलिये उसे हम काल्पनिक प्रतिबिम्ब कहते हैं । इसका मतलब यह तो नहीं कि किसी के साथ यदि काल्पनिक शब्द जुड़ जाय तो उसका अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। दर्पण वाले प्रतिबिम्ब का अस्तित्व तो है लेकिन काल्पनिक रूप में । उस प्रतिबिम्ब का अस्तित्व तो इस बात से ही स्पष्ट हो जाता है कि हमारा चेहरा वहां मौजूद है और जब तक हमारा चेहरा मौजूद है इस संसार में इसके द्वारा प्रतिविम्बत प्रत्येक प्रतिबिम्ब का अस्तित्व रहेगा ही, भले ही वह काल्पनिक स्तर पर ही क्यों न हो।
ठीक इसी प्रकार मस्तिष्क भी किसी प्रकार का एक लैन्स है जिसके द्वारा होने वाली बातें वास्तविक तथा तथ्यों के अन्दर सिद्ध करने लायक होती हैं । जबकि हमारा मन एक प्रकार का दर्पण है जिसके द्वारा होने वाले कार्य-कलाप तथ्यों से परे तथा काल्पनिक रूप में होते हैं। लेकिन फिर भी जो कुछ उसके द्वारा हमें
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