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मात्रा में सत्य का प्रभाव
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वह अभी तक दुनिया या समाज के सामने अप्रकट है तो क्या उसे अपने आप से प्रकट कर देना चाहिए ? इस बारे में मैं सिर्फ इतना ही कहना चाहता हूँ कि जब आप स्वयं को यह पता है कि आपसे गलती हो गई है तो इसका सीधा सा साफ मतलब यही है कि, वह अभी कैंसर के रोगाणु की तरह आपके मन के भीतर विद्यमान है । जो एक न एक दिन बड़ा घाव बनकर या फोड़ा बनकर प्रकट हो ही जावेगा । इसमें जरा सा भी संशय रखने की आवश्यकता मुझे महसूस नहीं होती है । मैं जब बहुत पहले अपने बचपन में साईकिल चलाना सीख रहा था, मुझे खूब अच्छी तरह याद है दूर से जिस गड्डे में साईकिल चलाते समय गिरने से मैं अपनेको रोकना चाहा करता था, पास पहुंचकर अपनी तमाम कोशिशों के बाबजूद भी उसी गड्डे में जाकर गिर जाता था । ठीक इसी प्रकार का हमारा मन है। ना चाहते हुए भी हम उन्ही बातों को प्रकट कर जाते हैं जिन्हें हमें छिपाना था।
इस प्रकार जब वे छिपायी हुई गलत बातें अबसर पाकर प्रकट होती है तब जो गलती शुरू में अकेली थी अब वह दुगनी होकर प्रकट होती है। क्योंकि अब तक उसमें अपराध को छिपाने का एक और दूसरा अपराध जुड़ चुका होता है । यदि यहां तक भी व्यक्ति अपनी गलती को स्वीकार कर लेता है तब भी वह झूठ कार्मिक अवस्था तक न पहुँचकर अंकुर अवस्था से थोड़ा और ऊपर उठकर पौधे की अवस्था में ही मुझ जाता है। और उस झूठ रूपी पौधे की जड़े वही पर कट जाती है और तब इस प्रकार की भावनाओं से ग्रस्त व्यक्ति थोड़े से अन्तराल के पश्चात पुनः अपने मानसिक तनाव से मुक्ति पाकर निर्मल मन हो जाता है। इस प्रकार से अपनी गलतियों को या झूठ को स्वीकार करने से उसमें नई शक्ति का संचार होता है। उसमें अपने प्रति हिम्मत जागृत होती है। जिसके कारण उसकी अपनी आत्मिक शक्ति का उत्थान होता है। इसलिए, जिस व्यक्ति को अपने मन के अंधेरों को नष्ट करना है उसे अपने जीवन की खेती में झूठ के बीजों को बुखाई बन्द कर देनी चाहिये। इसके साथ ही यदि कहीं उसे एक बार सत्य का स्वाद लग गया तो यह बात पक्की तरह से समझ लेनी चाहिये कि उसके जीवन से बाकी बची हई भू भी अपने आप किनारा कर हो जायेंगी है। क्योंकि सत्य के नजदीक ही हमें उस मजबूत आधार का पता चलता है जिसकी तुलना में अन्य कोई भी तर्क
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