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मन से ही प्रेम और मन से ही भक्ति
इस संसार में हम देखते हैं कि प्रेमी आपस में एक दूसरे से उतना ही प्रेम करते है जितना कि दूसरा उससे । कहावत भी है मैं तुम्हें उतना ही चाहता हूँ जितना कि तुम मुझे “यहाँ सभी एक दूसरे से सशर्त ही मिलते हैं । यदि तुम मेरी इज्जत करते हो वो मैं भी आपकी शाम में पलकें बिछाकर स्वागत करता हूँ। इस प्रकार का प्रेम पुछ व्यापारिक ही तो है। इस प्रकार की भावनाओं की व्यवस्था दो इन्सानों के बीच तो चल सकती है लेकिन हमें हमारी परमात्मा के प्रति प्रार्थना में यह व्यापारिकता बाधा बनती है क्योंकि वहां हम इस शतं को लगाकर परमात्मा के प्रति प्रेम में नहीं पड़ सकते हैं, कि हम तेरा नाम पुकारते हैं या भजते हैं तो तुझे भी हमें भजना हो पड़ेगा । इसलिये प्रार्थना का आधार यहां यह तथाकथित प्रेम नहीं हो सकता। प्रार्थना का आधार तो ऐसा आधार हो सकता है जिसमें कोई भी और किसी भी शर्त की व्यवस्था नहीं हो, यानी बेशर्त हो। तथा निस्वार्थ भी हो। और जिस प्रकार से प्रेम में भावना आधार होती है उसी प्रकार इसका आधार निश्चल श्रद्धा होती है। इस प्रकार की श्रद्धा ही जब किसी साधक की प्रार्थना का आधार बनती है तब इसी को हम भक्ति कहते हैं ।
मन की भावनाओं के द्वारा जब हम शरीर की प्रार्थना करते हैं, उसे । हम प्रेम कहते हैं, लेकिन जब हमें उन्ही भावनाओं की श्रद्धा के द्वारा अशरीरी की प्रार्थना करते हैं, उसे हम भक्ति कहते हैं। यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य दूसरे शरीर के साथ भक्ति के रूप में रहना चाहे तब भी वह नहीं रह पाता है, क्योंकि, हमारे इस भौतिक शरीर के कुछ कर्म तो जड़ता लिये ही होते हैं, जबकि भक्ति शुद्ध चैतन्य भाव है । यही कारण है कि आप किसी के प्रेम में
अपनी सम्पूर्ण श्रद्धा को भी लगा दें या उसे आप परमात्मा तुल्य समझकर । भी उसके आगे समर्पित हो जायें लेकिन फिर भी कही न कहीं भक्ति की । तरफ जाते-जाते भी आप अपने आपको प्रेम की तरफ लौटता हुआ पायेंगे ।। इसमें जरा सा भी संशय रखने की जरूरत मैं नहीं समझता हूँ।
वहां घर में केवल प्रेम होता है वहां तो पत्नी कहती है मैं तुमसे प्रेम करती हूँ लेकिन कमाकर लाओ नहीं तो मैं चली कही और किसी दूसरे के पास । केवल प्रेम से ही पेट नहीं भरता । लेकिन जहां श्रद्धा होती है वहां पत्नी कहती है जो भी है और जैसा भी है यही है मेरा पति परमेश्वर और वहां पति कहता है "बट में में आ गया सो भीड़ी"। यही है हमारी भक्ति का सिद्धान्त । भक्ति में कभी भक्त और भगवान के बीच दो प्रेमियों की तरह झगड़ा नहीं होता। श्रद्धा से जो सम्बन्ध
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