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योग और साधना
झूठ
के समर्थन में ठहर नहीं पाता है और तब ही साधक सत्य के मर्म की जान
पाते हैं ।
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इस प्रकार के लोगों के सम्बन्ध किसी दूसरे के साथ बनते हैं या बिगड़ते हैं समाज में उनका सम्मान होता है या अपमान इन फिजूल की बातों के द्वारा उनका दिल और दिमाग बेअसर बना रहता है। दूसरे शब्दों में सत्य को सिद्धांत रूप में स्वीकार करके इन्हें अपने इस मार्ग पर कभी मन को, कभी विचारों की, कभी भावनाओं की, कभी सम्बन्धों की, कभी मान की, कभी मर्यादा की बलि देनी ही पड़ती है. और सबसे बड़ी मजे की बात यह है कि इस सबके लिए ये सहर्ष तैयार हो जाते हैं किसी के प्रति नफरत पैदा करके नहीं या किसी को तुच्छ समझकर नहीं बल्कि यह समझकर कि:--
सत मत छोड़े सूरमा, सत छोड़े पत जाय ।
सत की बाँदी लक्ष्मी, फेरि मिलेगी आय ॥
मैंने तो आज तक जितना और जो कुछ भी जाना है वह इससे ज्यादा कुछ भी नहीं जाना है कि जो भी सम्बन्ध झूठ पर टिके हैं वे टिकाऊ हो ही नहीं सकते । हां थोड़ी देर के लिये हम एक दूसरे को धोखा अवश्य ही दे सकते हैं, क्योंकि इस दुनिया में किसी का भी और किसी भी स्तर का झूठ बिना खुले नहीं रहता है । आजकल युवक, युवतियों में प्रेम का चलन खूब हो गया है जिसके फल स्वरुप प्रेम-विवाह खूब जोरों पर हमारे समाज में विद्यमान है लेकिन प्रेम विवाह भी केवल वे ही सफल होते हैं जिन युवक, युवतियों ने अपने प्रेम की नींव यथार्थं पर रखी है । इस प्रकार से हम देखते हैं कि, जिस व्यक्ति ने असत्य की व्यर्थता को जान लिया है वह अपनी महत्वाकांक्षा के लिये भी असत्य नहीं बोलना चाहता है ।
यह ठीक है कि समाज में रहते हुये सौ फीसदी सत्य बोलना एक बड़ा ही दुष्कर कार्य है । इसलिए ही ज्यादा तर साधकों ने असत्य बोलने की अपेक्षा समाज से दूर रहना ही उचित समझा है। क्योंकि यहां समाज में रहकर बार-बार उनकी साधना के अर्न्तगत बिघ्न उपस्थित होते हैं। जिनके कारण बार-बार मन व्यथित होता है
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