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Achar
अध्याय २
साधना में सत्य का प्रभाव
हमारी संस्कृति का स्वरूप जिन ग्रन्थों से पता चलता है या हमारी संस्कृति के उत्तराधिकारी के रूप में जितने भी युग पुरुष इस धरती पर पैदा हुये हैं उन सभी ने इस मार्ग पर लगे हुये साधक को सर्वप्रथम सत्य बोलने पर विशेष जोर दिया है।
__इस संसार का प्रत्येक मानव चाहें वह स्त्री हो या पुरुष अपने मन के अन्दर अलग २ रुप से व्यक्तिगत होता है । उसके मानसिक स्तर पर अलग होने का कारण मात्र इतना है कि वह इस ब्रह्माण्ड के सत्य में से कितने प्रतिशत सत्य को स्वीकार कर पाया है। अथवा कितने प्रतिशत मायावी झठ को उसने अपने ऊपर ओढ रखा है जितना हम सत्य के नजदीक होते हैं । उतना ही हम इस संसार में व्याप्त माया के जाल से अपने आपको मुक्त हुआ पाते हैं, और उसके ठीक विपरीत जितना हम झूठ के अन्दर होते हैं उतना ही हम अपने आपको इस सांसारिक मायाजाल में फंसा हुआ पाते हैं।
जैसे कोई बालक अपने माता-पिता से पहली बार झूठ बोलता है । उस एक मात्र झूठ बोलने के पश्चात से ही वह अपने मन में उसके खुल जाने के बाद पैदा होने वाली स्थिति से भय ग्रस्त हो जाता है, और जिस कारण से अपने प्रथम झूठ को छिपाने के लिए अपने मन में अन्य दूसरी झुठों को जन्म देता है और फिर उनकी पुष्टि के लिए अनेक झूठे प्रमाण तैयार करता है । ठीक इसी प्रकार हम देखते है कि बालक केवल एक मात्र झूठ बोलकर अपने मन में एक अन्तहीन झूठ की शृंखला तैयार कर लेता है। यही श्रृंखला बाद में उसकी आदत बन जाती है, और फिर यही झूठ उसको आदतों को सीढ़ी बनकर उसके कर्मों में पहुंच जाती है । कर्मों से संस्कारों में, संस्कारों से भाग्य में अवतरित हो जाती है। जो लोग सत्य नहीं बोलते उनके कर्म, संस्कार एवं उनका भाग्य भी उनकी आध्यात्म
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