Book Title: Viroday Mahakavya Aur Mahavir Jivan Charit Ka Samikshatmak Adhyayan
Author(s): Kamini Jain
Publisher: Bhagwan Rushabhdev Granthmala
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2 वीरोदय महाकाव्य और भ. महावीर के जीवनचरित का समीक्षात्मक अध्ययन 'आर्हत्' शब्द का प्रयोग भी अति प्राचीनकाल से होता आया है। श्रीमद्भागवत् में तो 'आर्हत्'-शब्द का प्रयोग कई स्थानों पर हुआ है। एक स्थान पर भगवान ऋषभदेव के सम्बन्ध में लिखा है - "तपाग्नि से कर्मों को नष्टकर वे सर्वज्ञ 'अर्हत्' हुए और उन्होंने 'आर्हत्'-मत का प्रचार किया।
____ मोहनजोदड़ों में कुछ मुहरें ऐसी मिली हैं, जिन पर योग--मुद्रा में योगी-मूर्तियां अंकित हैं। उनके सिर पर त्रिशूल है और चरणों में एक भक्त करबद्ध नमस्कार कर रहा है। उस भक्त के पीछे वृषभ खड़ा है। योगी के इस परिवेश और परिकर को आदि तीर्थकर भ. वृषभदेव के परिप्रेक्ष्य में जैनशास्त्रों के विवरण से तुलना करने पर उनमें अत्यन्त साम्य दष्टिगत होता है।
प्रसिद्ध विद्वान श्री रामधारीसिंह दिनकर इसी बात की पुष्टि को हुए लिखते हैं
'मोहन जोदड़ों की खुदाई में योग के प्रमाण मिले हैं, वे जैनधर्म के आदि तीर्थंकर ऋषभदेव के हैं जिनके साथ योग और वैराग्य की परम्परा उसी प्रकार लिपटी हुई है जैसे कालान्तर में वह शिव के साथ सम्बन्धित थी। डॉ. एम. एल. शर्मा० लिखते हैं- 'मोहनजोदड़ों से प्राप्त मुहर पर जो चित्र अंकित है, वह भगवान ऋषभदेव का है। यह चित्र इस बात का द्योतक है कि आज से पांच हजार वर्ष पूर्व योगसाधना भारत में प्रचलित थी और उसके प्रवर्तक जैनधर्म के आदि तीर्थकर भगवान ऋषभदेव थे। तीर्थकर-परम्परा .. जैनधर्म में मान्य तीर्थंकरों का अस्तित्व वैदिक काल के पूर्व भी विद्यमान था। उपलब्ध पुरातत्व संबंधी तथ्यों के निष्पक्ष विश्लेषण से यह निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि तीर्थंकरों की परंपरा अनादिकालीन है। वैदिक वाड्मय में वातरशना मुनियों, केशीमुनि और व्रात्य क्षत्रियों के उल्लेख 'आये हैं, जिनसे यह स्पष्ट होता है कि पुरूषार्थ पर विश्वास करने वाले धर्म के प्रगतिशील व्याख्यता तीर्थकर प्राग--ऐतिहासिक काल में भी विद्यमान थे। वैदिक संस्कृति में ही वेदों को सर्वोपरि महत्त्व देकर