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(२९) यह वार्ता अदृष्ट होनेते वेदप्रमाणसे विना केवल तुमार मुखके कहनेमात्रसे विश्वासके योग्य नहीं है.
११ ॥ और जो कह्या संचितपुण्यकर्मोंका फल मुमुक्षुको योगीसमान एकजन्मविषे होवे है, सोभी सिद्धयोगीविना अन्यको नही. अन्यके प्राप्तिविष कोइ प्रमाण नहीं है. यांते नित्य नैमित्तिक कर्मों के फल भोगने वास्ते संचित कर्मोंके फल भोगने लीये अनेक जन्मोंकी प्राप्ति ज्ञानविना हावगी. यह वाता “ यदा चर्मवदाकाशं वेष्टविष्यंति मानवाः। तदा देवमविज्ञाय दुःखस्यांतो भविष्यति ॥” इस श्लोकमे कही है. अर्थ यह हैः-जब मनुष्य चर्मसभान आकाशको वेष्टन करे तो ब्रह्मज्ञानविना मुक्तिभी पावेगा. ईहां पर्यंत संक्षेपसे मीमांसाका खंडन दिखाया. थोडासा औरभी तिनोका मंडन खंडन श्रवण करो, संक्षेपसे कहता हूं.
१२ ॥ इस मीमांसकमतविष कर्मोंका फल पांचप्रकारका मान्या है सोभी मुमुक्षुको ब्रह्मज्ञानमे उपकार करता नही. जैसे कुलालव्यापारसे घट उत्पन्न होवे है तैसे ब्रह्मजिज्ञासुको कंठविषे भूषणसमान परमानंदकी उत्पत्ति नहीं होती, नित्यप्राप्त होनेसे;तथा अज्ञानकी निवृत्तिभी रज्जु. सर्पवत् ज्ञानसे होवे है, कोई कमसे उत्पन्न होवे नही.
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