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(३) १॥अथ एकोनविंशकमलमे तापसी अष्टावक्र संवाद॥
किसी कालमे जनक राजाकी सुशोभित राजधानीमे अष्टावक्र ऋषी शास्त्रार्थमे वरुणदेवके महापंडितपुत्रकों विजय करके अपने पिताजीके साथ सर्व ब्राह्मणोंको पंडित वरुणदेवके पुत्रसे छुडाया पाछे ब्राह्मणों विषे अभिमान साथ व्यवहार करने लागा तिसलिये सर्वद्विजवर मनमे घणा दुःखी भये तिनके संकट शमनार्थ अरु अष्टावक्रके अभिमान मर्दनार्थ ईश्वरप्रेरिता तिसीही सभामे एक तापसी जटाधारी स्त्रीशरीरी प्रगटभई अरु अष्टावक्र साथ अमृत जैसा संभाषण करती भई॥
हे मुनिवर मुमुक्षुजन जिसको जानकर जीवन्मुक्त होते है पुनः विदेहमुक्तभये जिसमे नदीसमुद्रसमान सोई स्वरूप होजाते है फिर जन्म नही पावते. और जिसको जानकरके फिर जानने योग्य नही रहता न कछु पावने योग्य रहता है. और सो पद अज्ञातभी है जो तुम एसे परमपावनपदको जानतेहो तो इस सभामे मेरेताई कह सुनावो॥
२॥ श्रीअष्टावक्रमुनिरुवाच-हे भगवती तिस पदकों मैं जानताई अरु शांतिसें तुमकों कहोंगाभी. इस संसारमे अथवा वेदोमेंभी मेरसे कछु अज्ञात होवे इस रीतिका तुम मेरे विषे निश्चय कबीभी नही करना.
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