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तिसके छेदनभेदनसे दुःखी नही होता तैसे जबतक विना ज्ञानसें देहोऽहं एसी बुद्धि नही त्यागी तबतक देहकुटुंबके दुःखी होनसे अपनेको दुःखी माने है जब ज्ञान भया अ. पनेको देहते प्रथक् निश्चय कीया तथा समाधिमे स्वनमे सुषुप्तिमे स्थूलदेहका ज्वरादिधर्मसहित अभाव अनुभव करके फिर देहकुटुंबादि दुःखी होने पर स्वयं सच्चिदानंदवननिश्चयवाला दुःखी नही होता, कहता है देहादे दुःखी है हम दुःखो नही एसेज्ञानााज्ञनावस्थाविषे ज्ञानीका भेद जानना जैसे अज्ञजन स्नेहकालने मुटुंबके दुःखसे दुःखी होता है तैले संन्यासकाल वा द्वेषकालमें तिनोके दुःखसे दुःखी नही होता तैसे ज्ञानी आनेको ज्ञानाज्ञानअवस्थामे सुखदुःख जानता है तो तुमने जानना ॥
१४॥ शिष्य उवाच-ज्ञानवान्के प्रारब्धकर्म है जिनके वशवति भया स्वल्पभोगी वा महान्भागी देखनेमे आवता है और इस जन्ममे शुभाशुभ कर्मभी करता है यहभी भावीजन्मका कारण होते है. लिखाहै “कोटि कल्प पर्यंतभी भोगे विना कर्मनाश नहींहोते " ॥ इस प्रमाणसे भावीजन्मभी होनाचाहीये यांते ज्ञानीके जीवन्मुक्तिमे वा विदेहमोक्षविषे संदेह होता है तिसके निवृत्ति वास्ते
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