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( ७७ ) वनती नही, न द्वितीयः श्रुतिमे कहा है कर्मों से पुत्रोंसे धनसे मुक्ति नहीं होती अरु जीवन्मुक्त स्वयं मुक्तरूप ही है सो मोक्षार्थ कर्ममे प्रवृत्त होय ही नहीं सकता ॥
४ ॥ तृतीयमेभी जो आत्मशुद्ध्यर्थ आपने कहा सो शरीरशुद्ध्यर्थ चित्तशुद्ध्यर्थ अथवा आत्मशुद्धयर्थ आपकर्मोंमे प्रवृत्ति कहते हो. नाद्यः यह शरीर मलमत्रका पात्र है तथा हाडमांसादि अपवित्रतासें पूर्ण. कर्मले कत्रीमो शुद्ध नही होता एसे जाननेवाला विद्वान् कैसे कर्ममे प्रवृत्त होवेगा. न द्वितीयः. ज्ञानी यति शुद्धांतःकरणवाले प्रथमहीसे चित्तशुद्धिवाले श्रुतिमे कहा है सो तदर्थ कर्म कैसे करेंगे, न तृतीयः, आत्मा श्रुति मे नाडी आदि सप्तधातुवोसें रहित लिंगदह राहत अज्ञानरूप कारणदेह रहित कहा है तथा निर्विषय होनेते कर्मोंसें शुद्धात्माकी शुद्धि कहनाभी असंभव होनेते ज्ञानी तिसके शुद्ध्यर्थ कौमे कैसे प्रवृत्त होवेगा जिस
आत्माके ज्ञान प्रभावतें ब्रह्मा, विष्णु, महेश सहस्त्र निषिद्धकर्म करते हूएभी स्वयं निर्लेपस्वरूप बोधवाले औरोंको स्वनाममात्रके जापसे शुद्धि करनेहारे मुक्तिदाता होते है तिस आत्मदेवकी कौन कौसें कौन नर शुकि करनेमे सामर्थ होइ सकता है।
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