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( ९१ ) ११॥ शौचाचमन स्नानादि कर्मभी आज्ञासे न करे अपनी इच्छासे करे ब्रह्मज्ञानीपर विधीका अभाव ही कहा है संन्यासी आत्मारूपी लोककी इच्छा करते हुए. गृहसें त्यागी होवे एसे श्रुतिवाक्यसे ब्रह्मज्ञानकी इच्छावाले यति विद्वानको लिखा है ॥ " जिज्ञासायां प्रवृत्तो हि नाद्रियेत्कर्मनोदनामिति" इस श्रवणसे ज्ञानके साधनसे बिना और कर्तव्य नही कर्मविधिकी उपेक्षा सुननेसें ॥ सिद्ध जो आस्माविज्ञानी तथा साधक इन पर विधी कैसेबने
१२॥ यांते परोक्षज्ञानी ही बहुत श्रवणकरता होवाभी जिसको स्वल्पज्ञान भया है मै मेरा, एसी वासनामे बंध जो है सोई परार्थकर्म करनेका अधिकारी है अथवा ब्रह्माने लोकहितार्थ प्रेरणा किये जे महान् मुनिव्यास वसिष्ठागस्त्यादि वा तैसे और भी अधिकारी, वर, शाप देनेमे, समर्थ है. वही जन लोकसंग्रहवचनके आधकारी है न सिद्ध न साधक न ममक्षन यति लोकसंग्रहके विषय है इसी हेतुसे भगवान् सर्वज्ञने कहा है "तस्यकार्यन विद्यते" ॥ इति चतुर्विशति कमलं समाप्तं हरि ॐ तत्सत् ॥
ॐ इति श्री ब्रह्मनिष्ठ पंडित श्री स्वामि विज्ञानानंदेन कृता भाषा समाप्ता.
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