Book Title: Vedant Prakaranam
Author(s): Vigyananand Pandit
Publisher: Sarasvati Chapkhanu
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(८९) पूर्वजोकहा “ विद्वान् यजते” इत्यत्र विदित वेदार्थवाला जानना ब्रह्मवेत्ता न जानना तिसको सर्वकर्मका संन्यासी होनेते शास्त्रविधिकोभी मिथ्याकोटिमे अंतरभाव होनेते कर्मविधिका सिद्धपुरुष अधिकारी नही. ॥
१०॥ न द्वितीयः अर्थात् साधक कर्मका अधि. कारी है यह दूसरा पक्षभी नही बनता साधक मुमुक्षुपर वेदाज्ञा कहूं श्रवण करी नही " जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्माति वर्तते ” एसे गीतामे निषेध कीया है कहूंभी समाधि विना मुमुक्षुसंन्यासीपर परार्थकर्मविधि देखी नही उलटा धीरपुरुष तिसको जानकर तिसीरूपाकार वृत्तिकरे तथा परब्रह्मका ध्यान करे वाणीको मनमे जोरे मनको बुद्धिमे बुद्धिको शांतात्मामे स्थित करे एसे निवृत्तिपूर्वक ध्यानविधायक वाक्य श्रुतिमे कहे है । ब्राह्मणः पांडित्यं निर्विद्य बाल्येन तिष्टासेत् ॥ एसे ज्ञाननिष्ठा ही मुमुक्षुके वास्ते श्रवणमे आवती है गीतामे कहा है. मनः संयम्यमञ्चित्तो ॥ ध्यान योग परो नित्यं ॥ वाचंयच्छ मनोयच्छ ॥ एसे वाक्योसे साधक यतिको समाधि ही कर्तव्य है न वैदिक न लौकिक न स्वार्थ नपरार्थ कर्म कहे है ।
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