Book Title: Vedant Prakaranam
Author(s): Vigyananand Pandit
Publisher: Sarasvati Chapkhanu

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Page 254
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ८३ ) जो न करे तो तिस गृहस्थी अपनेको ज्ञानी मानने वाले की जा अहंममतारूप आसक्ति है सा अज्ञानीपणे को सूचना करावै है. काहेते जो ब्रह्मवेत्ता है तिनको देहाभिमान महान् दुःखदाताहै तिसमे जो अहंता ममता मे प्रवृत्ति है सा तिससेंभीदुःख प्रदाता है तिसते फिर कर्मोंमे जा प्रवृत्ति है सो तिसते अयंत संकट रूप है एसे जानकरके गृहस्थाश्रमी अपरोक्षज्ञानी संन्यालको ही ग्रहण करता है स्वार्थ अथवा परार्थ कोकुं ग्रहण करता नही। ७॥ शिष्य उवाच-हे भगवन् ॥ " सर्वभूतात्मभूतात्मा कुर्वन्नपि न लिप्यते” इस वाक्य भगवानने कहा है अपरोक्षज्ञानी परार्थ कर्म करे है परंतु निलेंप ही रहिता है यांते परोपकार कर्म करनेमे कोई दोष नहीं है श्रीगुरुरुवाच-हे शिष्य अपरोक्षज्ञानी दो प्रकारके होते है एक सिद्ध होता है एक साधक होता है तिन दोनोमे आपकर्माधिकारी सिद्धको कहते हो अथवा साधकको कहते हो. नाद्यः सिद्धको विमुक्त होनेके कारणसें लोकोंपर अनुग्रह ही नही बनता॥ मै ब्रह्मानंद स्वरूप हूं यह जगत्भी ब्रह्मानंद स्वरूप है एसे निरंतर ब्रह्मनिष्ठारूप पाषाणपर तीक्षण करी जो जीवब्रह्मकी एकतारूपी खड्ड तिससे द्वैतका छेदन कर निरंतर ब्रह्मरूपसें स्थिति करनेहारे For Private and Personal Use Only

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