Book Title: Vedant Prakaranam
Author(s): Vigyananand Pandit
Publisher: Sarasvati Chapkhanu

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Page 250
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७९ ) ५ ॥ प्रश्नः - विद्वान् पुरुषोंकों कर्म परोपकारार्थ तो करना चाहीये जब एसे मानीये तो क्या हानी होती है ॥ उत्तरं - लोकोपकारार्थ कर्म करनेवाला जो ज्ञानी कहते हो सो अपरोक्षज्ञानी वा परोक्षज्ञानी सो को अपरोक्षज्ञानी कहो तो संन्यासी है वा गृहस्थ है. नाद्यः - तिस अपरोक्षज्ञानवान् संन्यासी को निरभिमानी होनेते तथा साधन सहित सर्व कर्मोंका परित्यागी होनेते कर्मों के करने का अधिकार ही नही है कर्मकरनेके अधिकारी विषे इतनी सामग्री चाहीये देदमे वर्णाश्रममे मातापितादिकुटुंब विषे अहंता ममता भावना संसार विषे सत्यत्वभावना धनाकांक्षा कर्तव्यताबुद्धि न करनेते पापकी भय होनी ये संपूर्णकर्मविषे प्रवृत्तिके साधन है इन सर्वकों ज्ञानाग्नि करके निर्मूल कर स्वयं परिपूर्ण परमात्मास्वरूपसे स्थित दूवा तथा देहात्मभावनाको ज्ञानानिसें समूल मर्दन कके ब्रह्मस्वरूपको प्राप्त भया जो स्वात्माराम संन्यासी है तिसपर वेदकी आज्ञाही नहीं वनती तो कर्मी प्रवृत्ति कैसे बने यह श्रुतिविषेभी कहा है वह विद्वान् सर्वका प्राण है पंचभूतात्मक शरीर करके प्रतीत होता है एसी ज्ञानी हूं कर्ता एसा अभिमान ही नहीं करता इतनी श्रुति है For Private and Personal Use Only

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