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( ६१ )
तो जन्मांतर के दूग्धपानके संस्कार रहि जाते है एसे माननेवालेकी बुद्धिका महात्म तो ब्रह्माहीसे प्रशंसा के योग्य है जैसे भोजन खाताभी कहता है मै ra स्वाद खाय बतावो हूं तो यहां प्रथम भक्षणके संस्कार कहांगये जो जन्मांतरके संस्कार मानते हो ||
॥ इति द्वाविंशति कमल समाप्तम् हरिः ॐ तत् सत् ॥
१ ॥ अथ त्रयोविंशति कमलमे एक जीवसे अनेक अनेकसे एकका वर्णन
शिष्य उवाच - हे सद्गुरो एकजीवसे अनेक अनेकसें एकजीव कैसे होता है जैसे हम जाग्रतमे एकला दी शयन करता हूं स्वप्नमे बहुत रूप होता. हूं तहां बहुत हूवाभी फिर यहां जाग्रतमे एकरूप होता हूं यामे यह शंका है. विना कर्म विना उपादान कारणों से सृष्टि कैसे उत्पन्न होवे है तथा कैसे नाश होवे है ॥
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