________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
( ७१ ) जीवरूप हूएभी प्रतिकांड प्रतिशाखासे फूट फूट नाना अंकुर हूवे नानारूप अपने कारणोंके समानरूप धारण कर नानाजीव होते है एसे एकजीवको नाना उपाधियोंसे नानाजीवरूपता प्रसिद्ध ही है ॥
७॥ तैसे इप्त विपश्चित् राजाके प्रसंगमेभी चतुर्देहोंवाले चतुर्जीवोंका जबतक समान कामकर्मकी उत्पत्ति भई तबतक एकदेह एकजीव होयकर राजपालन करताथा जब विरुद्ध भिन्न देशो मे भोग्यकर्मादिकोकी उत्पत्ति भई तब चार शरीर धारण कर चारो दिशावोंमे विजयार्थ गमन करता भया एसी कल्पना करनी अथवा एकही विपश्चित् जीवको उपाधि भिन्न होनेसे मरुत् समान चतुर्जीवभाव होता भया एसी कल्पना करनी यांते एक विपश्चित्के मुक्ति भये सर्व मुक्त नहीं हो सकते ॥
यांते हे शिष्य मायामे वाअंतःकरणमे स्थितजे कामकर्म वासना है तिनोंद्वारा एकसे नाना तथा भोगते कर्मनाश होने पर नानासे फिर एक होता है।
इति श्री त्रयोविंशति कमल समाप्तं ॥ १॥ अथ चतुर्विशतिकमलमे ज्ञानीपर विधि नहीं
श्रीभगवद्गीतामे श्लोकःयस्यात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः । आत्मन्येव च संतुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥ अर्थ-मानवो नाम
For Private and Personal Use Only