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(६३ ) २॥ श्रीगुरुरुवाच-हे सुजन इस प्रदानुसार एक कथा श्रवण करो इस मायिक प्रपंच विषे एक नगरमे विपश्चित् राजा, अग्निदेवका उपासक होता भया जब तिसके सुंदर प्रिय नगर ऊपर अन्य राजा चडि आये तब तिनोंकों प्रबल देखकर अपने ईष्टदेवता जो सर्वदा रक्षक तिस अग्निदेव विषे निज शरीर ही हवन कर दीया साथमे प्रार्थना करी मै चतुर्देहवाला आपकी कृपासें होवों तब तत्काल अग्निसे चतुर्देह तेजस्वी प्रगट भये सर्व शत्रुवोंका नाश करके फिर तृष्णादेवीके प्रभावसे आगेआगे चारो दिशावोंके विजयार्थ गमन करने लागे तिन चारोंविषे एक विष्णुजीके कृपाकटाक्षसे मुक्तिको प्राप्त होता भया एक चंद्रलोकमें चंद्रमा देवके कृपापात्र होइ तहांही रहता भया तथा एक रामचंद्रके समीप मृगदेहदारी विपश्चित् राजा श्रीवशिष्ठमुनीजीकी कृपा करके अग्निमे प्रवेश कर फिर तित अग्निसे राजवेषधारी महातेजस्वी विपश्चित् निकल कर राजा दशरथके साथ एकासनपर बेठ श्रीरामचंद्रके साथ ही उपदेश श्रवण कर कृतार्थ होता भया शेष एक रहा सो अद्यावधि वासनानुसार जन्ममरणमे रमण करता फिरता है हे शिष्य तुमारे प्रश्रानुसार इसमे प्रश्रोतर है सो श्रवण कर ।।
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