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( ४९ ) ॥ श्रीगुरुरुवाच- ॥ वर्णाऽऽश्रमाभिमानेन श्रुतेर्दासो भवेन्नरः । वर्णाश्रम विहीनश्च वर्तते श्रुति मूर्धनि ॥ हे. शिष्य इस प्रमाणसे जो वर्णाश्रमी है तिस पर श्रुति आज्ञा करे है जो तिससे रहित है सो तिसके आज्ञाऽधीन नही “ जो ज्ञानका जिज्ञासुभी है सोभी वेदकी आशाका अधिकारो नहो” यह भगवानने गीतामे कहा है यांते कल्पित भेद दृष्टिसें ज्ञानवानकी वास्तव ब्रह्मनिष्ठा निवृत्त नही होती जैसे स्वप्नगतभेददृष्टिकरे तोभी जाग्रतमे फलभोक्ता नही होता तैसे ज्ञानी पापपुण्यसे लिपायमान नही होता एसे अन्यत्रभो कहा है. दृष्टांत-जैसे मेघकेआगमनसे वा निवृत्ति होनेसे सूर्यकी हानि वृद्धि नही होती तैसे गुणात्मक इंद्रियोंकी विषयों विषे प्रवृत्ति निवृत्ति होनेसे गुणातीत असंग स्वरूप हमारी हानी वृद्धि नहीं होती इस प्रमाणसेभी ज्ञानीपर विधि नही यह कथन कीया है।
१३॥ शिष्य उवाच-ज्ञानवानको ज्ञानकालमे वा अज्ञानकालमे शरीरवाला होनेते आत्मज्ञान समय ज्ञानीविषे कौन विशेषता भई ॥ श्रीगुरुरुवाच-जैसे जबतक सर्प अपनी त्वचाको त्यागता नही तबतक तिसके छेदन भेदनसे दुःखी होता है जब त्वचा पक जावे तथा त्याग देवे तव
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