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(३५) एसे प्रश्नोंका उत्तर श्रवणकरके दोनो राजपुत्रोकों नमस्कार करके प्रसन्न भयासो यक्षराज देवस्वरूपसे दशेन दिखायकर अंतरध्यानभया तब ते दोनोभ्राता स्वकीय राजधानीमे जाइ सुखीहोतेभये तिनोको देखकर माता पिताभी सुखी होते भये ॥
॥ इति एक विंशतिकमलं समाप्तम् हरिः ॐ १७ ॥ अथ द्वाविंशति कमलमे जीवन्मुक्त
विदेहमुक्त वर्णनं ॥ ® श्लोकः-"देहेंद्रियेष्वहं भाव इदंभावस्तदन्यके। यस्य नो भवतः कापि स जीवन्मुक्त उच्यते " ॥१॥ अर्थ-सो जीवन्मुक्त कहा है जिसको सर्वत्र ब्रह्मदृष्टि से देहादिक इंद्रियोंमे अहंभाव औरमे अन्यभाव यह दोनो प्रकारकी भेदभावना कबीभी उदय नहीं होती. सो ब्रह्मज्ञानी जीवन्मुक्त अपरोक्षात्माकों जानकरके पुत्रैषणा वित्तैषणा लोकैषणाको त्यागकरके केवल भिक्षाले देहयात्रा करते है. इसश्रुतिको आज्ञासे सीनईच्छाका त्यागकरके इसीदेहमे ब्रह्मानंदका अनुभवकरके जीवन्मुक्त हूवा प्रारब्धके क्षयभये विदेहमुक्तभया फिरजन्मनदी पावता. यांते देहमे अहं. भाव पुत्रादिमे ममत्वभाव जो है सो वासनाका कारण हूवा जन्म मरणका कारण होता है ॥ .
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