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(४५) श्रीभगवाननेभी गीतामे कही है ॥ आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन । सुखं वा यदि वा दुःखं स योगी परमोमतः ॥ अर्थ-जैसे स्वात्मामे सुखदुःखादि विशेष नही रहते निर्गुण होनेते यांते. तिसमे रागद्वेष नहीं रहता तिस दृष्टांतसे जो सर्वत्र
आत्माको देखता है जो सर्व शरीरों में शरीरी लेपायमान नहीं होता सो परम योगी मान्या है यह शंकरानंदी टीकामे अर्थ कीया है ॥ ___ १०॥ शिष्य उवाच-जो सर्वत्र समदृष्टि करके ब्रह्मज्ञान होनेसें जो ज्ञानी विशेष ज्ञान रहित है सो केवल शुभकर्मोहीमे क्यों प्रवृत्त होता है अशु. भमे प्रवृत्ति क्यों नहीं करता ॥ श्रीगुरुरुवाच-जैसे कोई पंडित किसी दोषसे उन्मत्त होने परभी शास्त्रका ही उच्चारण करता है निषिद्धाचार करता नही जैसे शुकपक्षी सात्विक तामसप्रकृतिवालेपासि शुभाशुभ अर्थका ही कथन करता है तैसे ज्ञानवानभी वाल्यावस्थासे शुभ कर्मही करता रहा है फिर पवित्र ज्ञान की प्राप्ति करके कैसे अशुभ कर्मोंमे तिसकी प्रवृत्ति बने. किंतु नही बनेगी ज्ञानकी पवित्रता (नाह ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते) श्रीभगवानने इस श्लोकमे स्पष्ट कही है ॥
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