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( ४३ ) द्वेषबुद्धि करके तिसते उत्पन्न भया जे पापपुण्य तिनोकरके बंधनको प्राप्त होता है यही अज्ञानी.ज्ञानीका भेद जानना ॥
८॥ शिष्य उवाच-ज्ञानवान् स्वात्माको तीनो शरीरोंसे भिन्न जान करके फिर तिनोकी रक्षा वास्ते अन्नपानादिकोंमें कैसे प्रवृत्ति करता है यह लोकमे प्रसिद्ध है जिनोसे संबंध नही तिनोंकी रक्षा वास्ते प्रवृत्त नही होता ॥ श्रीगुरुरुवाच-जैसे राग विना बालककी. उन्मत्त पुरुषकी, निद्रावालेकी मनोराजकरनेवालेकी, राजाधीनकी ॥अन्नपानादिकोंमे लोकप्रसिद्ध प्रवृत्ति होती है तैसे प्रारब्धकर्मरूपी राजाऽ. धीन ब्रह्मानंदसे उन्मत्त ब्रह्मात्माके ज्ञानसे पूर्णपुरुषोत्तमकी भी सुखपूर्वक अन्नपानादिकोमे प्रवृत्ति होवे है।
९॥ शिष्य उवाच-ज्ञानी प्रारब्धवशते प्राप्तविषयोमे प्रवृत्ति करकेभी तिनोमे आसक्ति क्यों नही करताहै ॥ श्रीगुरुरुवाच-पदार्थोंमे विशेष जो ज्ञान है सो रागद्वेषका कारण होता है ज्ञानी तो ( सर्व खल्विदं ब्रह्म ) इस श्रुतिवाक्योंसे स्वानुभव करके सर्वत्र समबुद्धिसें विशेष ज्ञानके अभाव हुवे प्राप्तविषयोंमे रागद्वेष नही करता. जैसे स्वात्मामे लोकोंका रागद्वेष नही होता तैसे सर्वत्रात्मा निर्गुणको जान करके रागद्वेष दोनो नही करता यह वार्ता
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