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पूर्वोक्त सूर्यादिकोंकाभी प्रकाशक सोऔरोंसे न प्रकाश पावता हूवा सो क्या नही, तथा स्वयंप्रकाशमान नही एसे अज्ञानीते विना कोई ज्ञानी कहिसकता है ? किंतु नही कही सकता. एसा स्वयंप्रकाशमान ब्रह्म मै हूँ एसे तुमकों कहनेमे क्या संदेह है. ॥
८॥हे मुने जबतक निर्विकल्पवृत्ति नहीं होती तबतक बहिर्मुख सो सच्चिदानंद जाननेको अयोग्य है यांते तुम मनको निर्विकल्प करके निर्विकल्प आत्माको निश्चयकरके तिसीरूपमे स्थिरता पाइकरके जीवन्मुक्त होई विचरो. जैसे घट स्वतः आकाशसे पूर्ण है फिर तंडलोंसें पूर्णकीया जाता है तैसे यह अंतःकरण स्वतः चिदाकाशसें पूर्णहवा संकल्पविकल्पोंसे पूर्ण होता है जैसे घटते तंडुल निकालनेसे आकाश शेष रहता है तैले मनसे संकल्प निवृतकर, सचिदानंद निर्यन स्वतः शेष रहताहवा भाम होता है जो वह ब्रह्ममैही हूं।
९॥ भो अष्टावक्र थोरा समय तुम निर्विकल्प होवो पाछे विचार करो यह निर्विकल्पकालको किसने अनुभव कीया स्वयंप्रकाश अपने आत्मदेवने अनुभव कोया वा औरने इस विचारसे आपकारूप जो परमात्मा अरु अन्यकरके अप्रकाशमान है एसे आत्मदेवको निर्यन अनुभवकरके सुखी होवोंगे
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