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४॥एसे वचनामृतको श्रवण करके सा तापसी बोलती भई अहो मुने जो आपने कहा सो योग्य कहा है एसेही कहनाथा. तौभी विचारो जब आपने कहा ज्ञाताके अभावते सो पद अज्ञातही है. पुनः कहा तिस पदको मुमुक्षुजन जानकरके जीवन्मुक्त होते है इन दोनो वचनोके विरोधको तुम नहीं जान सकतेक्या!॥
५॥ यांते जो सर्वथा अवेद्य होवे है तिसकों खपुष्पवत् नहो है एसे कहनाचाहीये मैतिस वस्तुको जानताहूं एसे नही कहना चाहीये जब एसे कहतेहो जो वह पद जगतका कारणहै मैं जानता तिसमे संसारका प्रतिबिंब परता है तिन प्रतिबिंबोंकों मैं देखता हूं तिन प्रतिबिंबोंमे संदेह तथा अवेद्यता तथा तिनोंमे गृहणकी इन्छा नही होतीहै एसे कहिकर वह अवेद्य है सो कहना कैसे बनसकताहै दर्पणके देखने विना तद्गत कोई प्रतिबिंबोंके देखनेको सामर्थ होता है यह आपही कह सुनावो एसे तापसीके वचनामृतको पानकरके प्रसन्न भया अष्टावक्र अभिमानते रहित होकरके प्रणाम करके बोल्या हे भगवती तुमारे ताई प्रत्युत्तर देनेमे असमर्थ हवा तेरे शरणागत हूं आप हमको योग्य उपदेश करो मै आपका शिष्य हुं ॥
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