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श्रीगुरुरुवाच-जैसेस्थाणुमें चौर. रसीमें सर्प. आकाशमे नीलता, जलमे कांचका भ्रमहोवे है तैसे अद्वैतमे द्वैत भासे है ।। शिष्य उवाच-इस भ्रमस्थलमें पंडितोसें पांचख्याति सुनी है, सो मैं जानता नही आप विस्तारसे सुनाइये. शिष्यका प्रश्न सुनकर श्री गुरु पूर्वपक्षरूप चारख्याति कहते है ।। इति श्री त्रयोदशकमलमे महाराजारंतिदेवकी कथाऽलं *१॥अथ चतुर्दश कमलमे चतुष्टय ख्यातिकाकथन*
अब चारख्याति. असतख्याति, आत्मख्याति, अन्यथाख्याति, अख्याति इनोका क्रमसे निरूपण करते है. बुद्धानुसारी माध्यमिक है ते असतख्या. तिको मानते है सो तिस असत्रख्यातिकी रीतिएसे है॥सर्वप्रपंच शून्यसूप है तिसकारणतें जहां रज्जुमे सर्पभासता है सो सर्पकढूंभी नही. रज्जुदेशमे वाः अन्यदेशमे सर्पका अत्यंताभावही है, तिस अत्यंता, भाववाले सर्पका जो रज्जुदेशमे भानहोना तथा कथनहोना तिसकानाम असत्रख्याति है, एसे बौद्धमानते है सो अयोग्य है. काहेते, असत्का भाव नाम होवनादोताही नहीं यह श्रीकृष्ण कहिगये है. एवं बंध्याके पुत्रका और विना कनकसे कुंडलका, मृत्तिकाविना घटका, तंतुविना पटकाभी भान होना चाहीये,काहेते, जो असत्यत्व सर्वमे तुल्यही है ॥
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