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(२७)
८ ॥ जो तुम दुराग्रह कहो कल्पितकी निवृत्ति अधिष्ठान ज्ञानविना होतीहीही एसेतुम प्रसन्न हो तो युक्ति सर्पज्ञानकी विवृति अनि ज्ञान से भी कहता हुं || हे शिष्य जब रज्जुका प्रत्यक्षज्ञान होता है तब अंतःकरणकी वृत्ति नेत्रद्वारा जाइ रज्जुके समान आकारवादी होनेते रज्जु अरु वृत्ति दोनो उपाधि एकस्थानविषे रहनेते दोनो उपाधी काला चेतनभी दोनो का स्वयं एकही अधिष्ठान होता है यांते जो ज्ञान सर्पके अधिष्ठान रज्जुपालेचेतनका है सोईही ज्ञानवृत्तिवाला चेतन जो सर्पज्ञानका अविष्ठान है तिलकाभी ज्ञान है तिल ज्ञानसे सर्पके ज्ञानकीभी निवृत्तिने है यही अत्यंत निवृत्ति जाननी
९ ।। शिष्य उत्सव के सुरो को अपने कहा जहां रज्जु और वृद्धि ये दोनो उपाधी एकत्र होवें तहाँ उपदितभी एकदोहोता है सो नदी बनता कीदेते. जो ज्ञान है सो प्रमाताके आश्रित होवे है अथवा साक्षी के आश्रित होते है वादर रज्जुचेतन के आश्रित होइही नही सकता तैसे वृत्तिवाला जो साक्षी है सो कल्पित सर्पका अधिष्ठान नदी वन सकता जो
अष्ठान वच्छिन्न चेतन कल्पित सर्पका
अधिष्ठान होवे तो भीतर सर्पका मान क्यों न होना चाहीये. बाहरभान क्यों होता है
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