________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(५९)
* १ ॥ अथ सप्तदशकमलमे स्वप्न तथा अनिवचनीय मे विचार होवेगा ॥ *
जब अद्वैत का अपरोक्षहोवे है तब द्वैतका - भान रहितानही एसे अनुभववाले पुरुष चतुर्थी भूमिकाको प्राप्तदूवा जानना || तिनोंकों जगत् स्वप्न सदृश अनुभवमे आवे है || ज्ञानकाल उत्पन्न होवे है ज्ञानते पूर्व पश्चात् नही है यह तिनोकों अनुभव होता है यांदीको दृष्टिसृष्टिवाट् कहा है.
|| शिष्य उवाच दे भगवन यह जो साक्षी आत्मा है सो स्वप्नका अधिष्टान नहींहोनेते जब स्वप्नको अनुभव नही करता तो स्वप्नसमान जाग्रत्को कैसे जानेगा सो जिसप्रकार है सो मै विस्तारसें कहता हूं आपसुनीये जो साक्षीको कल्पितस्वप्नका अधि ष्ठानमानो तो जो अधिष्ठान होता है सो कल्पितवस्तु के साथ मिल्यारदिता है जैसे शुक्तिमे कल्पितजो रजत सो रजत अधिष्ठनके इदं अंश से संबद्धभयाही प्रतीत होवे है, जैसे यह रजत है एसे अनुभवहोवे है और जैसे आत्मामे कल्पितजे कर्तृत्वादिक है. ते आत्मासाथ संबद्धहुए प्रतीतिहोवे है जैसे मैं कर्ता हूं एसे अनुभव दोवे है तैसे जो साक्षीमे स्वप्न के पदार्थ जे गज अश्वादिक है ते कल्पित होतेतो "अहं गजः " मै इस्तिदू वा मेरेमे दस्ति है,
For Private and Personal Use Only