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(4) तैसे शुक्तिका प्रसिद्धत्वधर्मभी रजतमे भानहोनेते मनुष्यको एसेज्ञानहोवे है जोपूर्वकालकीबनी रजतको देखता हं यह ग्रहणकरनीयोग्य है जो जानता भ्रमः सिध्ध अबी उत्पन्नभयी है तो ग्रहणमें प्रवृत्त नहीं होता यांते शुक्तिका प्रागसिध्धत्वधर्मसो उत्पत्तिकी प्रतीति मे विघ्नरूपदै तांते रजतके उत्पत्तिकी प्रतीति नहींहोती
८॥ और जो आपने कहा रजतका नाशभी नही अनुभवमे आवता सोभी ठीक है तदांभी कारणसुनो नाश दो प्रकारका होता है एक सरूप दूसरा बाधरूप नाशहोता है तहां ध्वंसरूपनाश तो दंडने घटका प्रसिद्धही है दसरा बाधरूपजो नाश है सो अधिष्ठान जानसे अजानकारणके सहित कल्पित कार्यका नाशरूप जानना सो यहां प्रसंगमेंभी शु. क्तिज्ञानसे रजतका अज्ञानरूहित नाशको बाध कहा है दंडसे घटके नाशसहश नही जानना ध्वंस अरु बाधका परस्पर विरोधहोवे है घटध्वंसका जो ज्ञान है सो घटप्रतियोगीके ज्ञानपूर्वक होता है अरु रज. तके वाधका जो ज्ञान है सोशुक्तिमे तीनकाल रजत नही एसे निश्चयरूय है. घटज्ञान अरु रजतके तीनकाल अभावकाज्ञान परस्पर विलक्षण होनेते घटके नाश समान रजतका बाधरूपनाश प्रतीति होवनहीं. इति श्री सप्तदशकमलमे स्वनअनिर्वचनीय वर्णनं ॥
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