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(६५)
तां रजत विलक्षण सिद्धभया जो रजतको असत्विलक्षण सत् एसेमानो तो आत्मा के समान सत्य दोनाचाहीये अरु रजतका शुक्तिज्ञानसे नाशहोनेते सत्आत्मासेंभी विलक्षणजानना यांते सत्असत्से विलक्षण होनेते अनिर्वचनीय सिद्धभया सत्से विलक्षणअसत् असत् से विलक्षणसत् एसे नहीजानना जो एसेजानोगे तो सत् असत् परस्पर विरोधी होनेते एक रजतमे रहनाही नहीपावेगे तमप्रकाश के सदृश विरोधी होते. यांते शुक्तिमे रजत अनिर्वचनीय उत्पन्न होवे है शुक्तिज्ञानसे नाश पावे है. ॥
६ ॥ शिष्य उवाच - हे देव जो आपने कदा शुक्तिमे रजत उपजे है अरु ज्ञानसे नाशहोवें है सो अनुभव से विरोधी दोनेते मानने योग्यनदी का देते जैसे घटकी उत्पत्ति मृत्कुलाल से अनुभवसिद्ध अरु घटकानाशभी दंडादिकोंसे अनुभव मे आवे रजतकी उत्पत्ति नाश अनुभवविषे नही आवनेसे मानने योग्यनदी प्रत्यक्ष नहींहोनेसे कैसे मानीये यांते रजतमे अन्यथाख्यातिठीक है अनिर्वचनीयनही ॥
७ ॥ श्री गुरुरुवाच - हे शिष्य शुक्तिमे रजत कल्पित है अरु शुक्तिमे जाइदंता है सा रजतमे कल्पित है यांते यहरजत है ऐसा अनुभव होवे है जैसे शुक्तिकी इदंता रजतमे भानहोवे है
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