SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 164
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६५) तां रजत विलक्षण सिद्धभया जो रजतको असत्विलक्षण सत् एसेमानो तो आत्मा के समान सत्य दोनाचाहीये अरु रजतका शुक्तिज्ञानसे नाशहोनेते सत्आत्मासेंभी विलक्षणजानना यांते सत्असत्से विलक्षण होनेते अनिर्वचनीय सिद्धभया सत्से विलक्षणअसत् असत् से विलक्षणसत् एसे नहीजानना जो एसेजानोगे तो सत् असत् परस्पर विरोधी होनेते एक रजतमे रहनाही नहीपावेगे तमप्रकाश के सदृश विरोधी होते. यांते शुक्तिमे रजत अनिर्वचनीय उत्पन्न होवे है शुक्तिज्ञानसे नाश पावे है. ॥ ६ ॥ शिष्य उवाच - हे देव जो आपने कदा शुक्तिमे रजत उपजे है अरु ज्ञानसे नाशहोवें है सो अनुभव से विरोधी दोनेते मानने योग्यनदी का देते जैसे घटकी उत्पत्ति मृत्कुलाल से अनुभवसिद्ध अरु घटकानाशभी दंडादिकोंसे अनुभव मे आवे रजतकी उत्पत्ति नाश अनुभवविषे नही आवनेसे मानने योग्यनदी प्रत्यक्ष नहींहोनेसे कैसे मानीये यांते रजतमे अन्यथाख्यातिठीक है अनिर्वचनीयनही ॥ ७ ॥ श्री गुरुरुवाच - हे शिष्य शुक्तिमे रजत कल्पित है अरु शुक्तिमे जाइदंता है सा रजतमे कल्पित है यांते यहरजत है ऐसा अनुभव होवे है जैसे शुक्तिकी इदंता रजतमे भानहोवे है For Private and Personal Use Only
SR No.020885
Book TitleVedant Prakaranam
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVigyananand Pandit
PublisherSarasvati Chapkhanu
Publication Year1837
Total Pages268
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy