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( ३७ )
यांत एकही अविद्या दृश्य द्रष्टारूप होनेते आधार अधिष्ठानते भिन्न द्रष्टाचाली शंकाही नही बनती सर्व व्यवहारिक वा प्रतिभासिक इन दोनो का साक्षी दो अधिष्ठान है तथा साक्षीही अविद्याकी सात्विक वृत्तिसें द्रष्टा है. यांत अभिन्न पक्षमे शंका समाधान दोनो नही बनते इसीको दृष्टिसृष्टि वाद कहते है इसी अर्थको स्वप्नविचाररूप आगामी कमलमे कहेंगे । ॥ इतिश्री पंचदशकमलमे अनिर्वचनीय ख्यात्यलं ॥ १४ ॥ अथ षोडश कमलमे स्वप्नविषे प्रश्नोत्तरं ॥
॥ जैसे स्वप्नमे परमात्माका मनही जगत् रूप होई करके भासता है तैसे चिदाकासही इस जाग्रत अवस्था संसारका कारण है सोई द्रष्टा दर्शन और दृश्वरूप होई करके प्रकाशता है ॥ || शिष्य उवाच - हे भगवन् आपने कहा जाग्रत स्वप्न का भेद नही है सोना नही बनती. काहेते जो जाग्रत व्यवहारिक सजवाला है स्वप्न प्रातिभासिक सत्ता वाला है यांते दोनो एक नही और जो जाग्रतमे ज्ञात पदार्थ होते है तिनका स्वप्नमे स्मृतिज्ञान होता है अज्ञात पदार्थों का स्मरण होतानही यांते सत्य पदार्थोंकी जा स्वप्नमे स्मृति है सा मिथ्या न होनेसे तिस दृष्टांत करके जाग्रत पदार्थभी सत्यही दे मिया नही, क्यों जो यथार्थ स्मृति ज्ञानके विषय है ।
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