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(१३)
वल्मीक मे स्थित सर्पको सन्मुख रज्जुदेशमें देखे हैया का नाम अन्यथाख्याति मानते है, इसको अर्थाध्यास ज्ञानाध्यासभी कहते है सो अन्यथाख्यातिवादभी समीचीन नहीं है, काहेते. जोसदोष नेत्रसें जब दूरदेशविषे सर्पका भान मानते है तो मध्यस्थ पदार्थों का ज्ञानभी होनाचादीये अरु होतानही यांते अन्यथा - ख्यातिवादभी उन्मत्तके वाक्यवत् त्यागने योग्य है ॥
४ ॥ और चिंतामणि ग्रंथ के कर्ता नवीननैयायिक युं कहता है. जो सदोषनेत्रोंसें रज्जुही अन्यथा नाम सर्पके आकार भासे है तथा सर्पनामसे कहने मेआवे है यांदीको अन्यथाख्यति माने है तथा ज्ञानाध्यासभी इसकानाम कहते है सो यहमतभी अनुभबसें विरोध होनेते त्यागनेयोग्य है कादेते जो पदार्थरज्जु तिसमे ज्ञान सर्पका दोवना यह कैसे अनुभ
मे आवेगा जैसे अश्व मेश्वानका भान अंगीकारकरना नहीनता तैसे रज्जुको सर्पजानना नही बनता यांते चिंतामणिका मतभी चितविभ्रमवालेके कथन समान त्याज्य जानना.
५|| अब अख्यातिवादीजे सांख्यवादी अरुमीमांसक तिनोका मतनिरूपण करते है सो श्रवणकरो. जहां रज्जुमे सर्पका ज्ञान होता है तहां यह सर्प है एसा भानहोवे है. यहां यहपद रज्जुके सामान्य रूपका वाचक है.
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