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(५९) जो मूढ मनुष्य है सो मानसकर्मरूप जो योगाभ्यास है तिससे मुक्तिको नहीं प्राप्त होता है; जो श्रेष्ठ है सो ज्ञानमात्रसे अक्रिय रूपहोता है. २०
मूढजन ब्रह्मको नही प्राप्त होता अपने ते भिन्न ब्रह्म है भै तिसका स्वरूप बन जावों एसी इच्छा करनेसे ॥ और ज्ञानी ब्रह्म होनेकी इच्छा न करता दवाभी नित्य परब्रह्मका स्वरूपही है ये अष्टावक्रके वाक्य है. २१ ___ तैसे मूढ शांति नही पावता; शांतिरूप हवा शांतिको ढूंढता है, ज्ञानी अपनेको शांतरूप मान. नेसें शांतिमें मग्न रहता है. २२
जो जगतको देखे है सो तिसके अभाव का यत्न करता है ज्ञानी द्वैतको न देखे है, न तिसके नाशकी चिंता करे है. २३
जो अपने ते भिन्न चैतन्यको जाने है, सो पुरुष एसी उपासना करे जो मै चैतन्य हूं और मैं अखंड हूं जो एसे जाने है सो किसका ध्यान करे ? २४
_मै कर्ता हूं यह दृष्टि कारकोंकी अपेक्षासे होती है, स्वरूपसे तो अकर्ताही है कर्ता नही; मै कर्ता भोक्ता हूं ये जानना मिथ्या निश्चय है. यह संपूर्ण अष्टावक्रका अनुभवामृतदृष्टि है ॥ २५ इति श्री सप्तम कमलमे राजयोग समाप्त ।।
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